ध्यानमग्न भक्त को चाहिए कि वह प्राणवायु को धीरे-धीरे नाभि से हृदय में, हृदय से छाती में और वहाँ से तालु के निचले भाग तक ले जाये। उसे बुद्धि से समुचित स्थानों को ढूँढ निकालना चाहिए।
तात्पर्य
वायु की गति के छ: चक्र हैं। बुद्धिमान भक्त को चाहिए कि बुद्धि तथा ध्यान लगाकर इन स्थानों को खोजे। इनमें से उसके पूर्व जिस चक्र का उल्लेख है, वह स्वाधिष्ठान चक्र या प्राणवायु का शक्ति-आगार है और इसके ऊपर नाभि के नीचे मणिपूरक चक्र है। जब हृदय में ऊपरी स्थान की खोज की जाती है, तो अनाहत चक्र मिलता है और इससे भी ऊपर जब प्राणवायु को तालुमूल पर स्थिर किया जाता है, तो विशुद्धि चक्र मिलता है।
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