श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  2.2.21 
तस्माद् भ्रुवोरन्तरमुन्नयेत
निरुद्धसप्तायतनोऽनपेक्ष: ।
स्थित्वा मुहूर्तार्धमकुण्ठद‍ृष्टि-
र्निर्भिद्य मूर्धन् विसृजेत्परं गत: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मात्—वहाँ से; भ्रुवो:—भौहों के; अन्तरम्—बीच में; उन्नयेत—ले जाना चाहिए; निरुद्ध—रोककर; सप्त—सात; आयतन:—प्राणवायु के बहिर्द्वार; अनपेक्ष:—समस्त भौतिक भोग से स्वतन्त्र; स्थित्वा—रखकर; मुहूर्त—क्षण भर; अर्धम्— आधा; अकुण्ठ—भगवान् के धाम वापस; दृष्टि:—जिसका ध्येय है; निर्भिद्य—भेदकर; मूर्धन्—ब्रह्मरन्ध्र; विसृजेत्—अपना शरीर त्याग दे; परम्—परमेश्वर; गत:—गया हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात्, भक्तियोगी को अपनी प्राणवायु दोनों भौहों के मध्य लाना चाहिए और तब प्राणवायु के सातों बहिर्द्वारों को बन्द करके, उसे भगवद्धाम वापस जाने को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। यदि वह भौतिक भोग की सारी इच्छाओं से मुक्त है, तब उसे ब्रह्मरन्ध्र तक पहुँचना चाहिए तथा भगवान् के पास चले जाने पर अपने सारे भौतिक बन्धनों को त्याग देना चाहिए।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर सारे भौतिक बन्धनों को त्यागने और भगवद्धाम वापस जाने की विधि संस्तुत की गई है। इसकी शर्त यह है कि मनुष्य को पहले भौतिक भोग की इच्छा से पूरी तरह मुक्त हो जाना चाहिए। आयु तथा इन्द्रियतृप्ति के अनुसार, भौतिक भोग की कई कोटियाँ हैं। भगवद्गीता (९.२०) में सबसे अधिक जीवनावधि तक इन्द्रिय-भोग के सर्वोच्च धरातल का उल्लेख हुआ है। ये सारे के सारे भौतिक भोग हैं और मनुष्य को इससे आश्वस्त हो जाना चाहिए कि उसे ब्रह्मलोक तक की इतनी दीर्घ आयु की भी आवश्यकता नहीं होती। उसे भगवद्धाम लौटना ही होगा। उसे अत्यधिक भौतिक सुविधाओं से आकृष्ट नहीं होना चाहिए। भगवद्गीता (२.५९) में कहा गया है कि ऐसी भौतिक विरक्ति तभी प्राप्त की जा सकती है, जब मनुष्य जीवन की परम संगति से परिचित हो जाए। परं दृष्ट्वा निवर्तते। जब तक मनुष्य आध्यात्मिक जीवन की प्रकृति को पूरी तरह समझ नहीं लेता, तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता। निर्विशेषवादियों की एक श्रेणी द्वारा यह प्रचार करना कि आध्यात्मिक जीवन सभी प्रकार से शून्य है, घातक है और जीवों को बहका कर अधिकाधिक भौतिक भोग की ओर ले जानेवाला है; फलस्वरूप, अल्पज्ञों को परम् या परमेश्वर की कोई धारणा नहीं हो पाती; वे अपने को ब्रह्म-सिद्ध जीव कहकर भले ही मन को बहला लें, किन्तु वे नाना प्रकार के भौतिक भोगों से चिपके रहना चाहते हैं। ऐसे अल्पज्ञों के पास परम् की कोई अव-धारणा नहीं हो सकती, जैसाकि इस श्लोक में बताया गया है, अतएव वे परमेश्वर के पास नहीं पहुँच पाते। भक्तों को आध्यात्मिक जगत, भगवान् तथा वैकुण्ठ लोक कहलाने वाले असीम लोकों में उनकी दिव्य संगति का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है। यहाँ पर अकुण्ठ-दृष्टि: का उल्लेख हुआ है। अकुण्ठ या वैकुण्ठ का एक ही भाव है और जिस किसी ने भी आध्यात्मिक जगत तथा भगवान् के साथ साक्षात् संगति को अपना लक्ष्य बना रखा है, केवल वही इस संसार में रहते हुए भी अपने भौतिक बन्धनों को त्याग सकता है। यह परम्् शब्द तथा भगवद्गीता में कई स्थानों पर आया परं धाम शब्द एक ही है। जो भी परम धाम को जाता है, वह कभी इस जगत में लौट कर नहीं आता। ऐसी मुक्ति भौतिक जगत के सर्वोच्च लोक को प्राप्त करने पर भी नहीं मिल सकती।

प्राणवायु सात छिद्रों द्वारा निकलती है। ये हैं—दो आँखें, दो नथुने, दो कान तथा एक मुँह। सामान्यतया मनुष्य की मृत्यु के समय यह वायु मुँह से होकर निकलती है। किन्तु जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, जो योगी प्राणवायु को अच्छी तरह से वश में करता है, वह सिर में ब्रह्मरन्ध्र को भेद करके प्राणवायु का त्याग करता है। अतएव योगी उपुर्यक्त सातों छिद्रों को बन्द कर देता है, जिससे प्राणवायु सहज ही ब्रह्मरन्ध्र से होकर फूट निकले। यह महान् भक्त के भौतिक बन्धन त्यागने का निश्चित चिह्न है।

 
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