योगेश्वराणां गतिमाहुरन्त-
र्बहिस्त्रिलोक्या: पवनान्तरात्मनाम् ।
न कर्मभिस्तां गतिमाप्नुवन्ति
विद्यातपोयोगसमाधिभाजाम् ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
योग-ईश्वराणाम्—महान् सन्तों तथा भक्तों का; गतिम्—गन्तव्य; आहु:—कहा जाता है; अन्त:—भीतर; बहि:—बाहर; त्रि लोक्या:—तीनों लोकों का; पवन-अन्त:—वायु के भीतर; आत्मनाम्—सूक्ष्म शरीर का; न—कभी नहीं; कर्मभि:—सकाम कर्मों के द्वारा; ताम्—उस; गतिम्—चालक को; आप्नुवन्ति—प्राप्त करते हैं; विद्या—भक्ति; तप:—तपस्या; योग—योग- शक्ति; समाधि—ज्ञान; भाजाम्—पात्रों को ।.
अनुवाद
योगियों का सम्बन्ध आध्यात्मिक शरीर के होता है। फलस्वरूप अपनी भक्ति, तपस्या, योगशक्ति तथा दिव्य ज्ञान के बल पर वे भौतिक जगत के भीतर तथा बाहर अबाघ रुप से विचरण कर सकते हैं। किन्तु सकाम-कर्मी या निपट भौतिकतावादी इस तरह मुक्त भाव से कभी विचरण नहीं कर सकते।
तात्पर्य
भौतिकतावादी विज्ञानियों द्वारा, यान्त्रिक यानों की सहायता से, अन्य लोकों तक पहुँचने के सारे प्रयास केवल निरर्थक हैं। तथापि पुण्यकर्मों द्वारा मनुष्य स्वर्ग-लोक पहुँच सकता है। किन्तु ऐसे यान्त्रिक या भौतिकतावादी कार्यों द्वारा, चाहे वे स्थूल हों या सूक्ष्म, मनुष्य स्वर्ग या जनलोक से आगे नहीं जा सकता। चूँकि योगियों को स्थूल शरीर से कुछ लेना-देना नहीं रहता, अतएव वे भौतिक जगत के भीतर या बाहर कहीं भी विचरण कर सकते हैं। भौतिक जगत के भीतर वे मह:, जन:, तप: तथा सत्यलोकों में और भौतिक जगत के परे वैकुण्ठ लोकों में, बिना रोकटोक के, अन्तरिक्ष यात्री के रूप में विचरण कर सकते हैं। नारद मुनि ऐसे ही अन्तरिक्ष-यात्री का उदाहरण हैं और दुर्वासा मुनि ऐसे ही योगियों में से एक हैं। प्रत्येक व्यक्ति भक्ति, तपस्या, योग-शक्ति तथा दिव्य ज्ञान के बल पर नारद मुनि या दुर्वासा मुनि की भाँति विचरण कर सकता है। ऐसा कहा जाता है कि दुर्वासा मुनि ने, केवल एक वर्ष में ही, सम्पूर्ण भौतिक व्योम तथा परव्योम के कुछ भाग की यात्रा की थी। स्थूल या सूक्ष्म भौतिकतावादी योगियों की गति को कभी नहीं पा सकते।
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