श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  2.2.25 
तद् विश्वनाभिं त्वतिवर्त्य विष्णो-
रणीयसा विरजेनात्मनैक: ।
नमस्कृतं ब्रह्मविदामुपैति
कल्पायुषो यद् विबुधा रमन्ते ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—उस; विश्व-नाभिम्—विराट पुरुष की नाभि को; तु—लेकिन; अतिवर्त्य—पार कर; विष्णो:—भगवान् विष्णु की; अणीयसा—योग-सिद्धि के कारण; विरजेन—शुद्ध की गई; आत्मना—जीव द्वारा; एक:—अकेला; नमस्कृतम्—पूज्य; ब्रह्म विदाम्—अध्यात्म-पद पर स्थित रहनेवालों का; उपैति—पहुँचता है; कल्प-आयुष:—४,३००,०००,००० सौर वर्ष; यत्—जहाँ पर; विबुधा:—स्वरूपसिद्ध व्यक्ति; रमन्ते—भोग करते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 यह शिशुमार चक्र संपूर्ण ब्रह्माण्ड के घूमने की कीली है और यह विष्णु (गर्भोदकशायी विष्णु) की नाभि कहलाती है। केवल योगी ही इस शिशुमार चक्र को पार करता है और ऐसे लोक (महर्लोक) को प्राप्त करता है, जहाँ भृगु जैसे परि-शुद्ध हो चुके महर्षि ४,३००,०००,००० सौर वर्षों की आयु भोगते हैं। यह लोक उन सन्तों द्वारा भी पूजित है, जो अध्यात्मपद को प्राप्त हैं।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥