अथो अनन्तस्य मुखानलेन
दन्दह्यमानं स निरीक्ष्य विश्वम् ।
निर्याति सिद्धेश्वरयुष्टधिष्ण्यं
यद् द्वैपरार्ध्यं तदु पारमेष्ठ्यम् ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
अथो—तत्पश्चात्; अनन्तस्य—ईश्वर के विश्राम करनेवाले अवतार अनन्त के; मुख-अनलेन—मुख से निकलनेवाली अग्नि से; दन्दह्यमानम्—भस्मीभूत करते हुए; स:—वह; निरीक्ष्य—देखकर; विश्वम्—ब्रह्माण्ड को; निर्याति—बाहर जाता है; सिद्धेश्वर युष्ट-धिष्ण्यम्—शुद्धात्मा द्वारा प्रयुक्त वायुयान; यत्—स्थान; द्वै-परार्ध्यम्—१५,४८०,०००,०००,००० सौर वर्ष; तत्—वह; उ—महान्; पारमेष्ठ्यम्—सत्यलोक, जहाँ ब्रह्मा निवास करते हैं ।.
अनुवाद
संपूर्ण ब्रह्माण्ड के अन्तिम संहार के समय (ब्रह्मा के जीवन के अन्त में), अनन्त के मुख से (ब्रह्माण्ड के नीचे से) अग्नि की ज्वाला फूट निकलती है। योगी ब्रह्माण्ड के समस्त लोकों को भस्म होकर क्षार होते हुए देखता है और वह शुद्धात्माओं द्वारा प्रयुक्त होनेवाले वायुयानों के द्वारा सत्यलोक के लिए प्रस्थान करता है। सत्यलोक में जीवन की अवधि दो परार्ध अर्थात् १५४८०,०००,०००,००० सौर वर्ष आँकी जाती है।
तात्पर्य
यहाँ यह संकेत किया गया है कि महर्लोक, जहाँ शुद्ध आत्माओं या देवताओं की आयु ४,३००,०००,००० सौर वर्ष आँकी जाती है, वहाँ के निवासियों के पास वायु-यान होते हैं, जिनसे वे ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च लोक सत्य-लोक में पहुँचते हैं। दूसरे शब्दों में, श्रीमद्भागवत हमें अन्य लोकों के विषय में अनेक संकेत देता है, जो हमसे बहुत ही दूर हैं और जिन तक काल्पनिक वेग से भी अधिकगति वालेआधुनिक यान तथा अन्तरिक्ष यान नहीं पहुँच सकते। श्रीमद्भागवत के इन कथनों को श्रीधर स्वामी, रामानुजाचार्य तथा वल्लभाचार्य जैसे महान् आचार्यों ने स्वीकार किया है। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु तो श्रीमद्भागवत को निर्मल वैदिक प्रमाण के रूप में मानते हैं, अतएव कोई भी विचारवान व्यक्ति श्रीमद्भागवत के कथनों की अवहेलना नहीं कर पाता जब कि इसके प्रवचनकर्ता स्वरूपसिद्ध व्यक्ति श्री शुकदेव गोस्वामी जो समस्त वैदिक वाङ्मय के संकलनकर्ता अपने पिता श्रील व्यासदेव के पदचिह्नों का अनुसरण करनेवाले हैं। भगवान् की इस सृष्टि में ऐसी अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ हैं, जिन्हें हम अपनी आँखों से सदैव देखते रहते हैं, किन्तु आधुनिक भौतिकतावादी विज्ञान द्वारा उन तक पहुँचने में अक्षम रहते आए हैं। अतएव हमें वैज्ञानिक परिधि से परे वस्तुओं को जानने के लिए भौतिकतावादी विज्ञान के खण्डित प्रमाण पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। सामान्य व्यक्ति को आधुनिक विज्ञान तथा वैदिक विद्या दोनों ही ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि वह न तो आधुनिक विज्ञान की, न ही वैदिक साहित्य के एक भी कथन की जांच कर सकता है। सामान्य व्यक्ति के सामने एक ही विकल्प रह जाता है कि या तो वह इनमें से किसी एक पर विश्वास करे या दोनों पर करे। किन्तु समझने की वैदिक विधि अधिक प्रामाणिक है, क्योंकि उसे उन आचार्यों ने स्वीकार किया है, जो न केवल श्रद्धालु एवम् विद्वान व्यक्ति हैं, अपितु मुक्त व्यक्ति भी हैं तथा बद्धजीवों के समस्त दोषों से रहित हैं। आधुनिक विज्ञानी तो ऐसे बद्धजीव हैं, जो अनेक त्रुटियाँ कर सकते हैं। अतएव अच्छा यही होगा कि श्रीमद्भागवत जैसे वैदिक ग्रंथों के प्रामाणिक वचन को स्वीकार किया जाय, जिसे महान् आचार्यों ने एकस्वर से स्वीकार किया है।
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