श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  2.2.27 
न यत्र शोको न जरा न मृत्यु-
र्नार्तिर्न चोद्वेग ऋते कुतश्चित् ।
यच्चित्ततोऽद: कृपयानिदंविदां
दुरन्तदु:खप्रभवानुदर्शनात् ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
न—कभी नहीं; यत्र—जहाँ है; शोक:—शोक; न—न तो; जरा—बुढ़ापा; न—न तो; मृत्यु:—मृत्यु; न—न तो; अर्ति:—पीड़ा; न—न तो; च—भी; उद्वेग:—चिन्ताएँ; ऋते—के अतिरिक्त, बिना; कुतश्चित्—कभी-कभी; यत्—के कारण; चित्—चेतना; तत:—तत्पश्चात्; अद:—दया; कृपया—हार्दिक दया से; अन्-इदम्-विदाम्—भक्तियोग के अनभिज्ञों का; दुरन्त—दुर्लंघ्य; दु:ख—कष्ट; प्रभव—बारम्बार जन्म तथा मृत्यु; अनुदर्शनात्—क्रमिक अनुभव से ।.
 
अनुवाद
 
 सत्यलोक में न तो शोक है, न बुढ़ापा, न मृत्यु। वहाँ किसी प्रकार की वेदना नहीं है, जिसके कारण किसी तरह की चिन्ता भी नहीं है। हाँ, कभी-कभी चेतना के कारण उन लोगों पर दया उमड़ती है, जो भक्तियोग से अवगत न होने से भौतिक जगत के दुर्लंघ्य कष्टों को भोग रहे हैं।
 
तात्पर्य
 भौतिकतावादी स्वभाव के मूर्ख व्यक्ति परम्परागत प्रामाणिक ज्ञान का कोई लाभ नहीं उठाते। वैदिक ज्ञान प्रामाणिक है और इसकी प्राप्ति प्रयोग द्वारा नहीं, अपितु प्रामाणिक व्यक्तियों (अधिकारियों) द्वारा बताये गये ग्रन्थों के प्रामाणिक कथनों द्वारा होती है। मात्र पण्डित हो जाने से कोई वैदिक कथनों को नहीं समझ सकता, उसे उस वास्तविक विद्वान् के पास जाना होता है, जिसने शिष्य परम्परा से वैदिक ज्ञान प्राप्त किया हो, जैसाकि भगवद्गीता (४.२) में स्पष्ट कहा गया है। भगवान् कृष्ण जोर देते हुए कहते हैं कि भगवद्गीता में जिस ज्ञान-पद्धति की व्याख्या की गई है, वह सूर्यदेव को बताई गई थी और यही ज्ञान शिष्य-परम्परा द्वारा सूर्यदेव से उनके पुत्र मनु को प्राप्त हुआ और मनु से राजा इक्ष्वाकु (भगवान् रामचन्द्र के पितामह) को प्राप्त हुआ। इस प्रकार यह ज्ञान पद्धति एक-एक करके महान् ऋषियों को प्राप्त होती रही। किन्तु कालानुक्रम में यह प्रामाणिक परम्परा टूट गई, अतएव ज्ञान की पुन:स्थापना के लिए, भगवान् ने वही ज्ञान अर्जुन को प्रदान किया, क्योंकि भगवद्भक्त होने के कारण वह इसे समझने का योग्य पात्र था।अर्जुन ने भगवद्गीता को जिस रूप में समझा उसका भी वर्णन हुआ है (भगवद्गीता १०.१२-१३), किन्तु ऐसे अनेक मूर्ख व्यक्ति हैं, जो भगवद्गीता के सार को समझने के लिए अर्जुन के पदचिह्नों का अनुसरण नहीं करते। वे अपनी व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं, जो उन्हीं के समान मूर्खतापूर्ण होती हैं और वास्तविक ज्ञान के मार्ग में रोड़े का काम करती हैं तथा अल्पज्ञों या शूद्रों को गुमराह करने वाली हैं। यह कहा गया है कि वैदिक कथनों को समझने के पूर्व मनुष्य को ब्राह्मण बन जाना चाहिए। यह आक्षेप उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि यह आक्षेप कि स्नातक हुए बिना कोई वकील नहीं बन सकता। ऐसा आक्षेप किसी की भी प्रगति में बाधक नहीं होता, अपितु किसी विशेष विज्ञान को अच्छी तरह समझने के लिए अनिवार्य है। जो योग्य ब्राह्मण नहीं हैं, वे वैदिक ज्ञान की मनमानी व्याख्या करते हैं। सुपात्र ब्राह्मण वह है, जिसने प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन में कठिन प्रशिक्षण प्राप्त किया हो।

वैदिक विद्या हमें परमेश्वर श्रीकृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध को समझने में और भगवद्धाम वापस जाने के इच्छित फल को प्राप्त करने के लिए तदनुकूल कर्म करने में, मार्गदर्शन का कार्य करती है। लेकिन भौतिकतावादी लोग इसे नहीं समझ पाते। वे ऐसे स्थान में सुखी रहने की योजना बनाना चाहते हैं जहाँ सुख है ही नहीं। वे मिथ्या सुख के लिए या तो वैदिक कर्मकाण्ड द्वारा, या अन्तरिक्षयान द्वारा अन्य लोकों तक पहुँचने का प्रयास करते हैं, लेकिन उन्हें यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि ऐसे स्थान में जहाँ दुख ही दुख है, सुखी होने के लिए भौतिक समंजन की कोई भी मात्रा पथभ्रष्ट व्यक्ति को लाभ नहीं पहुँचा सकती, क्योंकि अन्ततोगत्वा इस ब्रह्माण्ड को कुछ काल बाद अपने समस्त वस्तुओं सहित विनष्ट होना है। तब भौतिकतावादी सुख की सारी योजनाएँ जैसी की तैसी धरी रह जायेंगी। इसीलिए बुद्धिमान मनुष्य भगवद्धाम वापस जाने की योजना बनाता है। ऐसा व्यक्ति संसार के सभी तापों—जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि—को पार कर जाता है। वह वास्तव में इसीलिए सुखी रहता है, क्योंकि उसे संसार की एक भी चिन्ता नहीं घेरती, अपितु वह दयालु होने के कारण उन भौतिकतावादी लोगों के लिए दुखी रहता है, जो कष्ट भोग रहे हैं और इस प्रकार से वह कभी-कभी ऐसे लोगों को भगवद्धाम वापस जाने की आवश्यकता का उपदेश देने के लिए उनके समक्ष आता है। सारे प्रामाणिक आचार्य भगवद्धाम वापस जाने की सत्यता का उपदेश देते हैं और लोगों को सचेत करते रहते हैं कि ऐसे स्थान में सुख की कोई योजना न बनायें जहाँ सुख कोरी कल्पना है।

 
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