श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  2.2.28 
ततो विशेषं प्रतिपद्य निर्भय-
स्तेनात्मनापोऽनलमूर्तिरत्वरन् ।
ज्योतिर्मयो वायुमुपेत्य काले
वाय्वात्मना खं बृहदात्मलिङ्गम् ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—तत्पश्चात्; विशेषम्—विशेषरूप से; प्रतिपद्य—प्राप्त करके; निर्भय:—बिना किसी सन्देह के; तेन—उससे; आत्मना— शुद्ध आत्मा; आप:—जल; अनल—अग्नि; मूर्ति:—रूप; अत्वरन्—पार करके; ज्योति:-मय:—तेजवान; वायुम्—वायुमण्डल में; उपेत्य—पहुँचकर; काले—कालक्रम से; वायु—वायु; आत्मना—आत्मा से; खम्—आकाश में; बृहत्—विशाल; आत्म- लिङ्गम्—आत्मा का असली स्वरूप ।.
 
अनुवाद
 
 सत्यलोक पहुँचकर भक्त अपने सूक्ष्म शरीर से, अपने स्थूल शरीर जैसी सत्ता में निर्भय होकर समाविष्ट हो जाता है और क्रमश: वह भूमि से जल, अग्नि, तेज तथा वायु की अवस्थाएँ पार करता हुआ अन्त में स्वर्गीय आकाश में पहुँच पाता है।
 
तात्पर्य
 जो व्यक्ति आध्यात्मिक सिद्धि तथा अभ्यास से ब्रह्मलोक या सत्यलोक तक पहुँच जाता है, वह तीन विभिन्न प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करने का पात्र बन जाता है। जो व्यक्ति अपने पूर्व पुण्यकर्मों के कारण कोई विशेष लोक प्राप्त करता है, तो वह अपने आनुपातिक पुण्यकर्मों के आधार पर ही ऐसे स्थान पाता है। जो व्यक्ति विराट या हिरण्यगर्भ की पूजा करके स्थान प्राप्त करता है, वह भी ब्रह्मा की मुक्ति के साथ-साथ मुक्त हो जाता है। किन्तु भक्ति के बल पर व्यक्ति जो स्थान प्राप्त करता है, जिसका यहाँ पर विशेष रूप से उल्लेख हुआ है, वह ब्रह्माण्ड के विभिन्न आवरणों को भेदकर अन्तत: परम अस्तित्व से परिपूर्ण वायुमण्डल में अपने आध्यात्मिक स्वरूप को प्रकट कर पाता है।

श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार सारे ब्रह्माण्ड ऊपर-नीचे एक दूसरे से संपुंजित हैं और इनमें से प्रत्येक में सात-सात आवरण हैं। जलमय अंश इन सप्तावरणों से परे होता है और प्रत्येक सप्तावरण अपने पूर्ववर्ती आवरण से दसगुना अधिक विस्तीर्ण है। जो भगवान् इन सारे ब्रह्माण्डों को अपनी श्वास से सृजित करता है, वह ब्रह्माण्डों के पुंज के ऊपर शयन करता है। कारणार्णव का जल ब्रह्माण्ड के जल-आवरण से पृथक् स्थित रहता है। ब्रह्माण्ड को आवरित करनेवाला जल भौतिक जल है, जबकि कारणार्णव का जल आध्यात्मिक जल है। फलस्वरूप, यहाँ जिस जल-आवरण का उल्लेख हुआ है, वह समस्त जीवों के मिथ्या अहंकार का आवरण माना जाता है। यहाँ पर एक-एक करके भौतिक आवरणों से क्रमिक मुक्ति का जो उल्लेख हुआ है, वह स्थूल शरीर की मिथ्या अंहकार अवधारणाओं से क्रमश: मुक्त होने तथा उसके पश्चात् सूक्ष्म शरीर में तब तक लीन रहने की प्रक्रिया है जब तक भगवद्धाम में शुद्ध आध्यात्मिक शरीर प्राप्त न हो ले।

श्रील श्रीधर स्वामी पुष्टि करते हैं कि भगवान् द्वारा संस्कारित किए जाने के बाद प्रकृति का एक अंश महत्-तत्त्व कहलाता है। इस महत्-तत्त्व का ही एक अंश मिथ्या अंहकार कहलाता है। अहंकार का एक अंश शब्द-ध्वनि है और शब्द-ध्वनि का एक अंश वायुमंडल की वायु है। इस वायु का एक अंश स्वरूपों में बदल जाता है और इन स्वरूपों से विद्युत् या उष्मा बनती है। उष्मा से पृथ्वी की गंध उत्पन्न होती है तथा इस गंध से स्थूल पृथ्वी उत्पन्न होती है। ये सब मिलकर दृश्य जगत बनाते हैं। दृश्य जगत का विस्तार ४ अरब मील (दोनों ओर का व्यास) है। तब ब्रह्मांड के आवरणों का शुभारम्भ होता है। पहले आवरण का विस्तार ८ करोड़ मील है। इसके पश्चात् ब्रह्मांड के आवरण क्रमश: अग्नि, तेज, वायु तथा आकाश के हैं और प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती आवरण से दसगुना विस्तार वाला होता है। भगवान् का निर्भीक भक्त इन्हें क्रमश: भेदकर परम वायुमण्डल में प्रवेश करता है जहाँ प्रत्येक वस्तु एक ही आध्यात्मिक सत्ता है। तब भक्त किसी एक वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करता है जहाँ वह भगवान् जैसा ही स्वरूप धारण करके उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है। भक्तिमय जीवन की यही सर्वोच्च सिद्धि है। पूर्ण योगी को इससे अधिक कुछ प्राप्त करने की इच्छा नहीं रहती।

 
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