श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  2.2.29 
घ्राणेन गन्धं रसनेन वै रसं
रूपं च द‍ृष्टय‍ा श्वसनं त्वचैव ।
श्रोत्रेण चोपेत्य नभोगुणत्वं
प्राणेन चाकूतिमुपैति योगी ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
घ्राणेन—सूँघने से; गन्धम्—सुगन्ध; रसनेन—स्वाद से; वै—ठीक-ठीक; रसम्—स्वाद; रूपम्—स्वरूप; च—भी; दृष्ट्या— दृष्टि से; श्वसनम्—सम्पर्क; त्वचा—स्पर्श; एव—मानो; श्रोत्रेण—कान के कम्पन से; च—भी; उपेत्य—प्राप्त करके; नभ:- गुणत्वम्—आकाश की पहचान; प्राणेन—इन्द्रियों से; च—भी; आकूतिम्—भौतिक कार्य-कलाप; उपैति—प्राप्त करता है; योगी—भक्त ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार भक्त विभिन्न इन्द्रियों के सूक्ष्म विषयों को पार कर जाता है, यथा सूँघने से सुगन्धि को, चखने से स्वाद को, स्वरूप देखने से दृष्टि को, सम्पर्क द्वारा स्पर्श को, आकाशीय पहचान से कान के कम्पनों को तथा भौतिक कार्य-कलापों से इन्द्रियों को।
 
तात्पर्य
 आकाश से परे सूक्ष्म आवरण हैं, जो ब्रह्माण्डों के प्राथमिक आवरणों के समान हैं। ये स्थूल आवरण, सूक्ष्म कारणों के आंशिक अवयवों के विकास हैं। इस तरह योगी या भक्त, स्थूल तत्त्वों के विलीन होने के साथ-साथ सूँघने से सुगन्ध जैसे सूक्ष्म कारणों का परित्याग कर देता है। इस तरह शुद्ध आध्यात्मिक स्फुलिंग-स्वरूप जीव सारे भौतिक कल्मष से शुद्ध होकर भगवद्धाम में प्रवेश करने के योग्य बन जाता है।
 
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