जैसाकि हम कई बार बता चुके हैं, शुद्ध आत्म-साक्षात्कार अपने को भगवान् के नित्य दास के रूप में स्वीकार करने की शुद्ध चेतना है। इस तरह मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति की अपनी मूल स्थिति में पुन: आरूढ़ होता है, जैसाकि अगले श्लोक में स्पष्ट बताया गया है। भगवान् से किसी प्रकार का पारिश्रमिक पाये बिना या अन्य रूप में भगवान् की प्रेमाभक्ति करने की यह अवस्था तभी प्राप्त हो सकती है जब भौतिक इन्द्रियाँ शुद्ध हों तथा इन्द्रियों की आदि शुद्ध अवस्था पुन: प्राप्त हो सके। यहाँ पर यह सुझाया गया है कि इन्द्रियों को योग के द्वारा शुद्ध किया जा सकता है—इसमें स्थूल इन्द्रियाँ तमोगुण में लीन हो जाती हैं और सूक्ष्म इन्द्रियाँ रजोगुण में। मन का सम्बन्ध सतोगुण से होता है, अतएव यह देवमय कहलाता है। मन की पूर्ण शुद्धि तभी सम्भव हो पाती है जब मनुष्य भगवान् का नित्य दास बनकर स्थिर हो जाता है। अतएव सत्त्व की कोरी उपलब्धि भी भौतिक गुण है; मनुष्य को सत्त्व की यह भौतिक अवस्था पार करके शुद्ध सत्त्व या वसुदेव सत्त्व तक पहुँचना होता है। यह वसुदेव सत्त्व मनुष्य को भगवद्धाम में प्रविष्ट कराने में सहायक होता है। इस प्रसंग में हमें स्मरण रखना होगा कि उपर्युक्त विधि की तुलना में भक्तों के क्रमिक उत्थान की विधि यद्यपि प्रामाणिक है, किन्तु वर्तमान युग के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि लोग योग-अभ्यास से मूलत: अनजान हैं। व्यावसायिक समर्थकों द्वारा तथाकथित योगाभ्यास भले ही शारीरिक क्रियाओं के लिए लाभप्रद हो, किन्तु इतनी छोटी सी सफलता यहाँ पर वर्णित आध्यात्मिक उत्थान की प्राप्ति में सहायक नहीं बन सकती। पाँच हजार वर्ष पूर्व जब मानव समाज का स्तर पूर्ण रूप से वैदिक व्यवस्था के अनुसार था, तो यहाँ पर वर्णित योग विधि प्रत्येक व्यक्ति के लिए सामान्य बात थी, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को, विशेष रूप से ब्राह्मण तथा क्षत्रिय को घर से दूर रहकर ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरु की संरक्षण में दिव्य कला में प्रशिक्षित किया जाता था। किन्तु आधुनिक मनुष्य इसे ठीक से समझ पाने में अक्षम है।
इसीलिए भगवान् श्री चैतन्य ने इस युग के भावी भक्तों के लिए इसे निम्नलिखित विधि से अत्यन्त सुगम बना दिया। अन्तिम प्राप्त होने वाले फल में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। सबसे मुख्य बात तो यह है कि मनुष्य को भक्तियोग की मूल महत्ता को समझना चाहिए। सारे जीव अपने-अपने कर्मों तथा फलों के अनुसार विविध योनियों में विभिन्न प्रकार का बन्धनों को भोग रहे हैं। किन्तु विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करने के दौरान जिस व्यक्ति की भक्ति तक थोड़ी भी पैठ हो जाती है, वह भगवान् तथा गुरु की अहैतुकी कृपा से भगवान् की सेवा की महत्ता को समझ सकता है। भगवान् निष्ठावान् व्यक्ति की सहायता गुरु की भेंट कराकर करते हैं, जो भगवान् का ही प्रतिनिधि होता है। ऐसे गुरु के उपदेश से मनुष्य को भक्तियोग का बीज प्राप्त होता है। भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की संस्तुति है कि भक्त अपने हृदय में भक्ति का बीज बोये और भगवान् के पवित्र नाम तथा महिमा के श्रवण तथा कीर्तन द्वारा उसे सींचकर पल्लवित करे। अपराधरहित होकर भगवान् के पवित्र नाम के श्रवण तथा कीर्तन की यह सरल विधि धीरे-धीरे मनुष्य को मोक्ष की अवस्था तक पहुँचा देगी। भगवान् के पवित्र नाम-कीर्तन की तीन अवस्थाएँ हैं। पहली अवस्था है भगवन्नाम का सापराध कीर्तन करना, दूसरी अवस्था है पवित्र नाम के कीर्तन की आभास अवस्था और तीसरी अवस्था है अपराधरहित भगवन्नाम का कीर्तन। दूसरी अवस्था में ही, जो कि सापराध तथा निरपराध के बीच की अवस्था है, मनुष्य स्वत: मोक्ष की अवस्था प्राप्त कर लेता है। इस निरपराध अवस्था में ही मनुष्य वास्तव में भगवद्धाम में प्रवेश करता है, यद्यपि शारीरिक रूप से वह भौतिक जगत में ही रहता है। निरपराध अवस्था प्राप्त करने के लिए उसे निम्नलिखित प्रकार से सतर्क रहना होगा।
जब हम श्रवण तथा कीर्तन की बात करते हैं, तो हमारा अभिप्राय केवल भगवान् के—राम-कृष्ण नामों के—कीर्तन तथा श्रवण (या सोलह नामों—हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे का क्रमबद्ध कीर्तन) से ही नहीं होता, अपितु भक्तों की संगति में रहकर भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत को पढऩा और सुनना भी इसमें सम्मिलित रहता है। भक्तियोग के प्रारम्भिक अभ्यास से हृदय में पहले से बोया हुआ बीज अंकुरित हो उठेगा और, जैसाकि ऊपर उल्लेख हो चुका है, नियमित सिंचाई करने से भक्तियोग की लता बढऩे लगेगी। ठीक से पालन-पोषण करने से यह लता इस हद तक बढ़ जायेगी कि यह ब्रह्माण्ड के आवरणों को भेद करके, जैसाकि हमने पिछले श्लोकों में सुना है, तेजवान आकाश या ब्रह्मज्योति तक पहुँच जायेगी और आगे बढ़ती हुई असंख्य वैकुण्ठ लोकों तक चली जायेगी। इन लोकों के आगे कृष्णलोक या गोलोक वृन्दावन है जहाँ यह लता प्रविष्ट होकर आदि भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण करती है। जब मनुष्य गोलोक वृन्दावन स्थित भगवान् के चरणकमलों तक पहुँच जाता है, तो श्रवण तथा वाचन की सिंचन विधि तथा पवित्र नाम की कीर्तन विधि फलीभूत होती है और भगवत्प्रेम रूपी जो फल लगते हैं, वे भक्तों द्वारा आस्वाद्य होते हैं, भले ही वे इस लोक में रह रहे होते हैं। भगवत्प्रेम रूपी पक्व फल का आस्वादन वे ही भक्त कर पाते हैं, जो निरन्तर सिंचन कार्यों में लगे रहते हैं जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है। लेकिन इस काम में लगे भक्त को सदैव सचेष्ट रहना चाहिए जिससे वह लता जो इतनी बड़ी हुई है छिन्न-भिन्न न हो जाय। अतएव उसे निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होगा।
(१) शुद्ध भक्त के चरणों पर किये गये अपराध की तुलना उस प्रमत्त हाथी से की जा सकती है, जो अत्यन्त सुन्दर उद्यान में घुस जाने पर उसे विनष्ट कर देता है।
(२) मनुष्य को चाहिए कि शुद्ध भक्तों के चरणों पर ऐसे अपराध न करने के लिए अपने को सावधान रखे जिस प्रकार मनुष्य एक लता की रक्षा चारों ओर बाड़ बनाकर करता है।
(३) ऐसा हो सकता है कि सिंचाई के कारण कुछ खर-पतवार भी उग आयें, अत: जब तक ऐसे खर-पतवार को समूल नष्ट न कर दिया जाय तब तक मुख्य लता या भक्ति योग की लता की वृद्धि अवरुद्ध हो सकती है।
(४) वास्तव में ये खर-पतवार हैं—भौतिक भोग, आत्मा को ब्रह्म में पृथक् अस्तित्व के बिना लीन करना तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के क्षेत्र में अन्य अनेक सांसारिक इच्छाएँ।
(५) अन्य खर-पतवार भी हैं—यथा शास्त्रों के नियमों का उल्लंघन, वृथा की व्यस्तताएँ, पशु हत्या तथा भौतिक लाभ, प्रतिष्ठा एवं सम्मान की लालसा।
(६) यदि पर्याप्त सावधानी नहीं बरती जाती तो सिंचाई से केवल खर-पतवारों की वृद्धि होगी, स्वस्थ लता ठिगनी रह जायेगी जिससे उसमें भगवत्प्रेम रूपी फल नहीं लग पायेंगे।
(७) अतएव भक्त को चाहिए कि प्रारम्भ में ही विभिन्न खर-पतवारों को समूल नष्ट कर दे। तभी मुख्य लता का स्वस्थ विकास हो सकेगा और वह ठिगनी नहीं रहेगी।
(८) ऐसा करने पर भक्त को भगवत्प्रेम-रूपी फल चखने को मिलता है और वह अपने इसी जीवन में भगवान् कृष्ण के साथ रह सकता है तथा पग-पग पर भगवान् के दर्शन कर सकता है।
जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है भगवान् की सतत संगति में जीवन का निरन्तर सुख भोगना और जिसने इसका स्वाद चख लिया है, वह किसी और तरीके से भौतिक जगत के किसी क्षणिक भोग की कामना नहीं करता।