श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  2.2.31 
तेनात्मनात्मानमुपैति शान्त-
मानन्दमानन्दमयोऽवसाने ।
एतां गतिं भागवतीं गतो य:
स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
तेन—उस शुद्ध; आत्मना—आत्मा द्वारा; आत्मानम्—परमात्मा को; उपैति—प्राप्त करता है; शान्तम्—शान्त; आनन्दम्— प्रसन्नता; आनन्द-मय:—स्वाभाविक रूप से ऐसा होने पर; अवसाने—सारे भौतिक कल्मष से रहित होकर; एताम्—ऐसा; गतिम्—गन्तव्य; भागवतीम्—भक्तिमयी; गत:—द्वारा प्राप्त; य:—जो व्यक्ति; स:—वह; वै—निश्चय ही; पुन:—फिर; न— कभी नहीं; इह—इस जगत में; विषज्जते—आकृष्ट होता है; अङ्ग—हे महाराज परीक्षित ।.
 
अनुवाद
 
 केवल विशुद्धात्मा ही भगवान् की संगति की पूर्णता अपनी स्वाभाविक स्थिति में परि-पूर्ण आनन्द तथा तुष्टि के साथ प्राप्त कर सकता है। जो कोई भी ऐसी भक्तिमयी पूर्णता को पुन: जागृत करने में समर्थ होता है, वह इस भौतिक जगत के प्रति फिर से आकृष्ट नहीं होता और इसमेंं लौटकर कभी नहीं आता।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में गतिं भागवतीम् का वर्णन ध्यान देने योग्य है। ब्रह्मवादी-निर्विशेषवादी द्वारा इच्छित परब्रह्म भगवान् की किरणों से तादात्म्य भागवतीम् पूर्णता नहीं है। भागवतजन कभी भी भगवान् की निर्विशेष किरणों में लीन होना नहीं चाहते। वे तो सदैव ही आध्यात्मिक आकाश में किसी एक वैकुण्ठ लोक में परमेश्वर की संगति के लिए आकांक्षा करते हैं। सम्पूर्ण आध्यात्मिक आकाश असंख्य वैकुण्ठ लोकों से भरा पड़ा है और भौतिक आकाश तो इस आध्यात्मिक आकाश का एक नगण्य अंश मात्र है। भागवत (भक्त) का लक्ष्य किसी एक वैकुण्ठ लोक में प्रवेश करना होता है जिनमें से प्रत्येक में भगवान् अपने असीम साकार अंशों के रूप में असंख्य शुद्ध भक्त पार्षदों की संगति का आनन्द भोगते रहते हैं। इस भौतिक जगत में बद्धजीवों को भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्त करने पर इन लोकों में भेज दिया जाता है। किन्तु नित्य मुक्त आत्माओं की संख्या इस जगत के बद्धजीवों से कहीं अधिक रहती है और वैकुण्ठ लोक वासी नित्यमुक्त आत्माएँ इस दुखी भौतिक जगत में आना कभी भी पसन्द नहीं करतीं।

परमेश्वर की निर्विशेष ब्रह्मज्योति में लीन होने के इच्छुक निर्विशेषवादियों को भगवान् के साकार रूप की प्रेमाभक्ति की कोई धारणा नहीं होती। उनकी तुलना उन मछलियों से की जा सकती है, जो नदियों तथा नालों में उत्पन्न होकर महासागर में प्रवास के लिए चली जाती हैं। वे बहुत काल तक महासागर में नहीं रह सकतीं, क्योंकि इन्द्रिय तृप्ति की उनकी इच्छा उन्हें पुन: नदियों-नालों में वापस ला देती है। इसी प्रकार जब भौतिकतावादी सीमित जगत में भोग करने के अपने प्रयत्नों में विफल होता है, तो वह या तो कारणार्णव में लीन होकर या निर्विशेष ब्रह्मज्योति तेज में लीन होकर निर्विशेष मोक्ष की खोज करता है। किन्तु न तो कारणार्णव और न ही निर्विशेष ब्रह्मज्योति इन्द्रियों की संगति तथा व्यस्तता के लिए श्रेष्ठ विकल्प प्रस्तुत कर पाते हैं, फलत: निर्विशेषवादी एक बार फिर इन्द्रिय तृप्ति की अतृप्त कामना में भौतिक जगत में जन्म-मृत्यु के चक्र में फँस जाता है। किन्तु कोई भी भक्त जो अपनी इन्द्रियों को भक्ति में लगाकर भगवद्धाम में प्रवेश करता है और वहाँ पर मुक्तात्माओं तथा भगवान् की संगति करता है। वह भौतिक जगत की सीमित चाहारदीवारियों की ओर कभी आकृष्ट नहीं होता।

भगवद्गीता (८.१५) में भी इसी की पुष्टि की गई है, जैसाकि भगवान् कहते हैं “बड़े-बड़े महात्मागण या भक्तियोगी मेरी संगति प्राप्त करने के बाद इस दुखमय तथा अस्थायी जगत में फिर कभी वापस नहीं आते।” अतएव जीवन की सर्वोच्च सिद्धि भगवान् की संगति प्राप्त करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। भगवान् की सेवा में लगा रहने के कारण, भक्तियोगी को, ज्ञान या योग जैसी अन्य मोक्ष की विधि के लिए कोई आकर्षण नहीं होता। शुद्ध भक्त शत प्रतिशत भगवान् का भक्त होता है, अन्य कुछ भी नहीं।

इस श्लोक के अन्य दो शब्दों शान्तम् तथा आनन्दम् पर भी हमें ध्यान देना होगा, क्योंकि ये बोध कराते हैं कि भगवद्भक्ति भक्त को वास्तव में दो महत्त्वपूर्ण वर देनेवाली है। ये हैं—शान्ति तथा तुष्टि। निर्विशेषवादी ब्रह्म से एकाकार होने का इच्छुक रहता है या दूसरे शब्दों में, वह ब्रह्म बनना चाहता है। यह कोरी कल्पना है। योगी विविध प्रकार की योगशक्तियों से ऊब उठता है, जिसके कारण उसे न तो शान्ति मिलती है, न सन्तोष। अतएव न तो निर्विशेषवादी, न ही योगी को वास्तविक शान्ति तथा सन्तोष मिल पाता है, किन्तु भक्त पूर्ण रूप से शान्त तथा सन्तुष्ट रह सकता है क्योंकि उसकी संगति पूर्ण ब्रह्म से रहती है। अतएव ब्रह्म में लीन होने या कतिपय योग-शक्तियों की उपलब्धि में भक्त को कोई आकर्षण नहीं रहता।

ईश-प्रेम की प्राप्ति का अर्थ है अन्य समस्त आकर्षणों से पूर्ण मुक्ति। बद्धजीव अनेक इच्छाएँ करता है—जैसे धार्मिक व्यक्ति बनना, धनी बनना, प्रथम कोटि का भोक्ता होना, या स्वयं ईश्वर होना या योगी आदि की भाँति शक्तिशाली बनना और कुछ भी पा कर या करके आश्चर्यजनकरूप से कार्य करना। ये समस्त महत्त्वाकांक्षाएँ उस भावी भक्त द्वारा ठुकरा दी जानी चाहिए जो अपने सुप्त भगवत्प्रेम को पुन: जागृत करना चाहता है। अशुद्ध भक्त भक्ति सम्पन्न करके उपर्युक्त सारी भौतिक वस्तुओं की कामना करता है, किन्तु शुद्ध भक्त में उपर्युक्त कल्मष लेशमात्र भी नहीं रहते। इनमें भौतिक इच्छाएँ, निर्विशेष का चिन्तन तथा योग शक्तियों की प्राप्ति सम्मिलित हैं। शुद्ध भक्ति-मय सेवा के द्वारा अपने वांछनीय उद्देश्य अर्थात् भगवान् के लिए मनुष्य भगवत्प्रेम की स्थिति प्राप्त कर सकता है।

यदि हम अधिक स्पष्ट करना चाहें तो कह सकते हैं कि यदि कोई भगवत्प्रेम प्राप्त करना चाहता है, तो उसे भौतिक भोग की सारी इच्छाओं का परित्याग कर देना चाहिए, उसे किसी भी देवता की पूजा से दूर रहना चाहिए और उसे केवल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा में लगे रहना चाहिए। उसे भगवान् से तदाकार होने के मूर्खतापूर्ण विचार का परित्याग कर देना चाहिए और संसार में प्रतिष्ठा पाने के लिए आश्चर्यजनक शक्तियों को प्राप्त करने की इच्छा त्याग देनी चाहिए। शुद्ध भक्त किसी पारिश्रमिक की आशा न करके भगवान् की सेवा में ही लगा रहता है। इससे भगवत्प्रेम प्राप्त होगा या, जैसाकि इस श्लोक में कहा गया है, शान्तम् तथा आनन्दम् की स्थिति प्राप्त हो सकेगी।

 
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