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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  2.2.34 
भगवान् ब्रह्म कार्त्स्‍न्येन त्रिरन्वीक्ष्य मनीषया ।
तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
भगवान्—महापुरुष ब्रह्माजी ने; ब्रह्म—वेद; कार्त्स्न्येन—संक्षिप्तीकरण द्वारा; त्रि:—तीन बार; अन्वीक्ष्य—परीक्षा करके; मनीषया—अत्यन्त विद्वत्तापूर्वक; तत्—वह; अध्यवस्यत्—निश्चित किया; कूट-स्थ:—मन की एकाग्रता से; रति:—आकर्षण; आत्मन् (आत्मनि)—भगवान् श्रीकृष्ण में; यत:—जिसके द्वारा; भवेत्—ऐसा होता है ।.
 
अनुवाद
 
 महापुरुष ब्रह्मा ने अत्यन्त मनोयोग से वेदों का तीन बार अध्ययन किया और उनकी भलीभाँति संवीक्षा कर लेने के बाद, वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षण (रति) ही धर्म की सर्वोच्च सिद्धि है।
 
तात्पर्य
 श्री शुकदेव गोस्वामी वेदों के परम प्रमाण, ब्रह्मा, का उल्लेख कर रहे हैं, जो भगवान् के गुणावतार हैं। भौतिक सृष्टि के प्रारम्भ में ही ब्रह्माजी को वेदों की शिक्षा दी गई। यद्यपि ब्रह्माजी ने साक्षात् भगवान् से वैदिक उपदेशों का श्रवण किया, लेकिन वेदों के भावी जिज्ञासुओं की उत्सुकता को तुष्ट करने के लिए ही ब्रह्माजी ने, एक जिज्ञासु की तरह, वेदों का तीन बार अध्ययन किया जैसाकि सारे जिज्ञासु करते हैं। उन्होंने बड़े मनोयोग से अध्ययन किया और वेदों के प्रयोजन पर भी मन को केन्द्रित रखा और सारी विधि की सम्यक् परीक्षण करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भगवान् श्रीकृष्ण का शुद्ध अनन्य भक्त बनना ही समस्त धार्मिक सिद्धान्तों की सर्वोच्च सिद्धि है। भगवद्गीता का अन्तिम उपदेश भी यही है, जिसे स्वयं भगवान् ने दिया। इस प्रकार वैदिक निर्णय सभी आचार्यों द्वारा मान्य है और जो इस निर्णय के विरुद्ध हैं, वे वेदवादरत हैं, जैसाकि भगवद्गीता (२.४२) में कहा गया है।
 
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