हे राजन्, अतएव यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य सर्वत्र तथा सदैव भगवान् का श्रवण करे, गुणगान करे तथा स्मरण करे।
तात्पर्य
श्री शुकदेव गोस्वामी इस श्लोक को तस्मात् अर्थात् अतएव से प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि वे पिछले श्लोक में बता चुके हैं कि भक्तियोग की भव्य विधि के अतिरिक्त मोक्ष का कोई शुभ उपाय नहीं है। भक्तों द्वारा विभिन्न विधियों यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्म-निवदेन से भक्तियोग का अभ्यास किया जाता है। ये नवों प्रामाणिक विधियाँ हैं और निष्ठावान भक्त इनमें से सभी या कुछ या केवल एक विधि द्वारा वांछित फल पा सकता है। किन्तु इनमें से पहली विधि अर्थात् श्रवण विधि भक्तियोग में सर्व-प्रमुख है। पर्याप्त तथा समुचित विधि से श्रवण किये बिना, अन्य विधियों के अभ्यास से कोई प्रगति नहीं हो पाती और केवल श्रवण के लिए तो समूचा वैदिक वाङ्मय भरा पड़ा है, जिसे व्यासदेव जैसे भगवान् के शक्त्यावेश अवतार ने संकलित किया है। चूँकि यह सुनिश्चित हो चुका है कि भगवान् प्रत्येक वस्तु के परमात्मा हैं, अतएव उनका श्रवण तथा कीर्तन सर्वत्र एवं सदैव होना चाहिए। यह मनुष्य का विशिष्ठ कर्तव्य है। जब मनुष्य सर्वव्यापी भगवान् के विषय में सुनना बन्द कर देता है, तो वह मानवनिर्मित यन्त्रों द्वारा प्रसारित कूड़ा- करकट सुनने का अभ्यस्त बन जाता है। कोई यन्त्र बुरा नहीं है, क्योंकि यन्त्र से मनुष्य भगवान् के विषय में सुन सकता है, किन्तु प्रच्छन्न कार्यों के लिए प्रयुक्त होने से यन्त्र मानव सभ्यता के स्तर में त्वरित ह्रास ला रहा है। यहाँ पर यह कहा गया है कि मनुष्य को सुनना अनिवार्य है, क्योंकि भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथ इसी उद्देश्य से लिखे गये हैं। मनुष्यों के अतिरिक्त अन्य कोई सजीव प्राणी ऐसे वैदिक ग्रंथों का श्रवण नहीं कर सकता। यदि मानव समाज वैदिक साहित्य का श्रवण करे तो वह उन अपवित्र व्यक्तियों द्वारा उच्चरित अपवित्र शब्द-ध्वनि को नहीं सुन पायेगा, जो पूरे समाज के स्तर को गिराने वाले हैं। श्रवण की पुष्टि कीर्तन द्वारा होती है। जो व्यक्ति उचित स्रोत से सुनता है, वह सर्वव्यापी भगवान् के विषय में आश्वस्त हो जाता है और तब वह भगवान् का गुणगान करने के लिए प्रोत्साहित होता है। सभी बड़े-बड़े आचार्यों ने, यथा रामानुज, मध्व, चैतन्य, सरस्वती ठाकुर ने, या कि अन्य देशों में मुहम्मद, ईसा तथा अन्यों ने, कीर्तन द्वारा सदैव तथा सर्वत्र भगवान् का यशोगान किया है। चूँकि भगवान् सर्वव्यापी हैं, अतएव सर्वत्र तथा सदैव उनका गुणगान अनिवार्य है। भगवान् का गुणगान करने में देश तथा काल का बन्धन नहीं होना चाहिए। यही सनातन धर्म या भागवत धर्म कहलाता है। सनातन का अर्थ है शाश्वत, सदैव तथा सर्वत्र। भागवत का अर्थ है भगवान् सम्बन्धी। भगवान् सारे देश-काल के स्वामी हैं, अतएव भगवान् के नाम का विश्व भर में श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण होना चाहिए। ऐसा करने से पूरे विश्व के लोगों द्वारा उत्पुकतावश प्रतीक्षित व इच्छित शांति व वैभव का प्रादुर्भाव होगा। च शब्द भक्तियोग की अन्य विधियों को सम्मिलित करता है, जैसाकि ऊपर वर्णित है।
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