श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  2.2.37 
पिबन्ति ये भगवत आत्मन: सतां
कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं
व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
पिबन्ति—पीते हैं; ये—जो; भगवत:—भगवान् का; आत्मन:—अत्यन्त प्रिय; सताम्—भक्तों के; कथा-अमृतम्—सन्देश-रूपी अमृत; श्रवण-पुटेषु—कान के छेदों के भीतर; सम्भृतम्—परिपूरित; पुनन्ति—पवित्र करते हैं; ते—उनके; विषय—भौतिक भोग; विदूषित-आशयम्—कलुषित जीवन लक्ष्य; व्रजन्ति—वापस जाते हैं; तत्—भगवान् के; चरण—चरण; सरोरुह- अन्तिकम्—कमल के निकट ।.
 
अनुवाद
 
 जो लोग भक्तों के अत्यन्त प्रिय भगवान् कृष्ण की अमृत-तुल्य कथा को कर्णरूपी पात्रों से भर-भर कर पीते हैं, वे भौतिक भोग के नाम से विख्यात दूषित जीवन-उद्देश्य को पवित्र कर लेते हैं और इस प्रकार पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर के चरणकमलों में भगवद्धाम को वापस जाते हैं।
 
तात्पर्य
 मानव समाज के सारे कष्ट दूषित जीवन-उद्देश्य अर्थात् भौतिक संसाधनों पर प्रभुत्व जताने के कारण हैं। मानव समाज अविकसित संसाधनों का जितना ही दोहन अपनी इन्द्रिय-तृप्ति के लिए करता है, वह उतना ही भगवान् की भ्रामक भौतिक शक्ति (माया) द्वारा बँधता जाता है और विश्व के कष्ट घटने के बजाय बढ़ते जाते हैं। भगवान् मानव जीवन की सारी आवश्यकताओं की यथा अन्न, दूध, फल, लकड़ी, पत्थर, चीनी, रेशम, रत्न, कपास, नमक, जल, तरकारी आदि की प्रचुर मात्रा में पूर्ति करता है, जिससे विश्व की मानव जाति के साथ ही ब्रह्माण्ड के प्रत्येक लोक के अन्य जीवों का भी भरण-पोषण हो सके। पूर्ति के सारे साधन हैं और सही प्रणाली से अपनी आवश्यकता प्राप्त करने के लिए मनुष्य को थोड़ी सी शक्ति व्यय करने की आवश्यकता होती है। जीवन में कृत्रिम रूप से सुविधाएँ उत्पन्न करने के लिए यन्त्रों तथा औजारों या बड़े-बड़े इस्पात उद्योगों की आवश्यकता नहीं है। जीवन कभी कृत्रिम आवश्यकताओं द्वारा आरामदेह नहीं बनाया जा सकता; वह तो ‘सादा जीवन उच्च विचार’ से ही आरामदेह बनता है। यहाँ पर शुकदेव गोस्वामी ने मानव समाज के लिए उच्चतम चिन्तन का सुझाव दिया है—यह है श्रीमद्भागवत का ठीक से श्रवण करना। इस कलियुग के मनुष्यों ने जीवन की पूर्ण दृष्टि खो दी है और यह श्रीमद्भागवत उनके लिए टार्चलाइट के समान है, जिससे असली मार्ग देखा जा सकता है। श्रील जीव गोस्वामी प्रभुपाद ने इस श्लोक में आये कथामृतम् की व्याख्या की है और यह संकेत किया है कि श्रीमद्भागवत भगवान् का अमृतमय संदेश है। श्रीमद्भागवत के पर्याप्त श्रवण से जीवन के दूषित लक्ष्य, प्रकृति पर प्रभुता जताना शमित होगा और संसार भर के लोग ज्ञान तथा आनन्द के साथ शान्तिमय जीवन बिता सकेंगे।

शुद्ध भगवद्भक्त के लिए भगवान् के नाम, यश, गुण, पार्षद आदि से सम्बन्धित कोई भी कथा मोहक होती है और चूँकि ऐसी कथाओं का अनुमोदन नारद, हनुमान, नन्द महाराज तथा वृन्दावन के अन्य वासियों द्वारा हुआ है, अतएव ऐसे संदेश निश्चय ही दिव्य तथा हृदय एवं आत्मा को भानेवाले हैं।

यहाँ पर श्री शुकदेव गोस्वामी आश्वस्त करते हैं कि भगवद्गीता तथा उसके बाद श्रीमद्भागवत की कथाओं के निरन्तर सुनते रहने से मनुष्य भगवान् के पास पहुँचकर विशाल कमल-सदृश गोलोक वृन्दावन में भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति कर सकेगा।

इस प्रकार इस श्लोक में बताई गई भक्तियोग की विधि को प्रत्यक्ष स्वीकार कर लेने से, अर्थात् भगवान् की दिव्य कथा के पर्याप्त श्रवण से, भगवान् के निर्विशेष विराट स्वरूप का चिन्तन किये बिना ही, मनुष्य का भौतिक कल्मष दूर हो जाता है। यदि अभ्यासकर्ता भक्तियोग का अभ्यास करने से भौतिक कल्मष से शुद्ध नहीं हो पाता, तो उसे छद्म भक्त समझना चाहिए। ऐसे पाखण्डी के लिए भवबन्धन से छूटने के लिए कोई उपाय नहीं है।

 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध के अन्तर्गत “हृदय में भगवान्” नामक द्वितीय अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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