श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  2.2.5 
चीराणि किं पथि न सन्ति दिशन्ति भिक्षां
नैवाङ्‌घ्रिपा: परभृत: सरितोऽप्यशुष्यन् ।
रुद्धा गुहा: किमजितोऽवति नोपसन्नान्
कस्माद् भजन्ति कवयो धनदुर्मदान्धान् ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
चीराणि—फटे-पुराने कपड़े; किम्—क्या; पथि—मार्ग में; न—नहीं; सन्ति—हैं; दिशन्ति—दान देते हैं; भिक्षाम्—भिक्षा; न—नहीं; एव—भी; अङ्घ्रिपा:—वृक्ष; पर-भृत:—अन्यों का पालन करने वाली; सरित:—नदियाँ; अपि—भी; अशुष्यन्— सूख गई हैं; रुद्धा:—बन्द; गुहा:—गुफाएँ; किम्—क्या; अजित:—भगवान्; अवति—सुरक्षा प्रदान करता है; न—नहीं; उपसन्नान्—शरणागतों को; कस्मात्—तब, किसलिए; भजन्ति—चापलूसी करते हैं; कवय:—विद्वान; धन—सम्पत्ति; दुर्मद- अन्धान्—अत्यन्त मतवालों को ।.
 
अनुवाद
 
 क्या सडक़ों पर चिथड़े नहीं पड़े हैं? क्या दूसरों का पालन करनेवाले वृक्ष अब दान में भिक्षा नहीं देते? क्या सूख जाने पर नदियाँ अब प्यासे को जल प्रदान नहीं करतीं? क्या अब पर्वतों की गुफाएँ बन्द हो चुकी हैं? या सर्व-शक्तिमान भगवान् पूर्ण शरणागत आत्माओं की रक्षा नहीं करते? तो फिर विद्वान मुनिजन उनकी चापलूसी क्यों करते हैं, जो अपनी गाढ़ी कमाई की सम्पत्ति के कारण प्रमत्त हो गये हैं?
 
तात्पर्य
 संन्यास कभी भिक्षा माँगने या परजीवी बनकर दूसरों पर निर्भर रह कर जीवित रहने के लिए नहीं है। शब्दकोश के अनुसार परजीवी वह है, जो समाज को किसी प्रकार का योगदान किये बिना, समाज के खर्च पर ही जीवित रहता है। संन्यास आश्रम समाज को महत्त्वपूर्ण योगदान करने के लिए है न कि गृहस्थों की कमाई पर आश्रित रहने के लिए। इसके विपरीत, प्रामाणिक संन्यासियों द्वारा गृहस्थों से भिक्षा लेना दाता के लाभ हेतु सन्तों द्वारा प्रदत्त सुअवसर होता है। सनातन-धर्म प्रथा में संन्यासी को भिक्षा देना गृहस्थ का कर्तव्य होता है और शास्त्रों का आदेश है कि वे संन्यासियों को अपने परिवार के बालक जैसा मानें और बिना माँगे भोजन, वस्त्र आदि प्रदान करें। इसलिए छद्म संन्यासियों को श्रद्धालु गृहस्थों की दानवृत्ति का अनुचित लाभ नहीं लेना चाहिए। संन्यास आश्रम के प्रत्येक व्यक्ति का यह प्रथम कर्तव्य है कि वह मनुष्यों के लाभ के लिए कोई साहित्यिक कृति प्रदान करे जिससे उन्हें आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति की दिशा प्राप्त हो सके। श्रील सनातन, श्रील रूप तथा वृन्दावन के अन्य गोस्वामियों के संन्यास-काल में अन्य कर्तव्यों में सर्वप्रधान कर्तव्य था वृन्दावन के सेवाकुंज में पारस्परिक विद्वत्तापूर्ण वाद-विवाद (गोष्ठी)। (इस स्थान पर श्री राधा दामोदर मन्दिर की स्थापना श्रील जीव गोस्वामी ने की तथा श्रील रूप गोस्वामी एवं श्रील जीव गोस्वामी की समाधियाँ भी यहीं स्थित हैं।) वे मानव-समाज के लाभ हेतु दिव्य महत्ता वाला प्रचुर साहित्य अपने पीछे छोड़ गये। इसी प्रकार समस्त आचार्यों ने, जिन्होंने स्वेच्छा से संन्यास आश्रम ग्रहण किया, मानव-समाज को लाभ पहुँचाना ही अपना लक्ष्य बनाया, न कि सुखपूर्ण गैरजिम्मेदार जीवन व्यतीत करके अन्यों के ऊपर भारस्वरूप बनकर रहना। किन्तु जो संन्यासी कोई योगदान नहीं कर पाते, उन्हें चाहिए कि भोजन के लिए गृहस्थों के यहाँ न जाँय, क्योंकि ऐसे साधुओं द्वारा गृहस्थों से भोजन की भीख माँगना इस सर्वोच्च आश्रम का अपमान करना है। शुकदेव गोस्वामी ने यह चेतावनी विशेष रूप से उन साधुओं को दी है, जो अपनी आर्थिक समस्या हल करने के लिए इस वृत्ति को अपनाते हैं। कलियुग में ऐसे संन्यासियों की बहुलता है। जब कोई मनुष्य स्वेच्छा से या परिस्थितिवश संन्यासी बन जाता है, तो उसमें यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि परमेश्वर संसार में सर्वत्र समस्त जीवों के पालनकर्ता हैं। तो भला वह क्योंकर अपने उस शरणागत की उपेक्षा करेगा जो शत प्रतिशत उसकी सेवा में लगा रहता है? एक सामान्य मालिक अपने नौकर की आवश्यकताओं का ध्यान रखता है, तो फिर सर्वशक्तिमान सर्व- ऐश्वर्यवान परमेश्वर अपने पूर्ण शरणागत जीव के जीवन की आवश्यकताओं की न जाने कितनी परवाह करता होगा? सामान्य नियम है कि संन्यासी भक्त किसी से माँगे बिना एक छोटा सा साधारण कौपीन धारण करे। वह इसे सडक़ में पड़े चिथड़ों से प्राप्त कर लेता है। जब वह भूखा हो तो वह किसी उदार वृक्ष के पास जाये जो उसे फल देगा और जब उसे प्यास लगे तो वह बहती नदी से जल पी ले। उसे आरामदेह घर में रहने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि उसे चाहिए कि पर्वत की गुफा खोज ले और जंगली पशुओं से भयभीत न हो। उसे ईश्वर में विश्वास होना चाहिए, क्योंकि वे सबों के हृदय में वास करनेवाले हैं। भगवान् व्याघ्रों तथा अन्य जंगली जानवरों को आदेश दे सकते हैं कि वे उनके भक्त को विचलित न करें। भगवान् श्री चैतन्य के परम भक्त हरिदास ठाकुर एक ऐसी ही गुफा में रहा करते थे और संयोगवश एक विषधर सर्प भी उसी गुफा में रहता था। ठाकुर हरिदास का कोई प्रशंसक, जो नित्य ही उनको देखने जाता था, सर्प से भयभीत था और उसने यह सलाह दी कि ठाकुर उस स्थान को छोड़ दें। चूँकि उनके भक्त सर्प से भयभीत थे और वे नियमित रूप से उस गुफा में आते थे, अतएव ठाकुर हरिदास ने उनका प्रस्ताव मान लिया। किन्तु ज्योंही ऐसा हुआ तो साँप उस गुफा के बिल से बाहर निकल आया और सबों की उपस्थिति में उसने उस स्थान को सदा के लिए छोड़ दिया। अपने हृदय में वास करनेवाले भगवान् के आदेश से साँप ने हरिदास को वरीयता प्रदान करते हुए उस स्थान को छोडऩे का और उन्हें विचलित न करने का निश्चय किया। अतएव यह ऐसा ज्वलन्त उदाहरण है, जिससे पता चलता है कि भगवान् किस प्रकार ठाकुर हरिदास जैसे प्रामाणिक भक्त को सुरक्षा प्रदान करते हैं। सनातन-धर्म के विधानों के अनुसार, मनुष्य को प्रारम्भ से सभी परस्थितियों में भगवान् की सुरक्षा पर पूरी तरह निर्भर रहना सिखाया जाता है। संन्यास का मार्ग उन्हीं के लिए ग्रहणीय बताया गया, जो पूर्ण रूप से सिद्ध तथा पवित्र हों। भगवद्गीता (१६.५) में भी इस अवस्था का वर्णन दैवी सम्पत् के रूप में हुआ है। मनुष्य को दैवी सम्पत् अर्थात् आध्यात्मिक सम्पत्ति संग्रह करने की आवश्यकता है, अन्यथा इसकी वैकल्पिक सम्पत्ति आसुरी-सम्पत्, उसे बुरी तरह पराजित कर देगी और उसे बाध्य होकर संसार के विभिन्न कष्टों के बन्धन में पडऩा होगा। संन्यासी को सदा अकेला रहना चाहिए और निर्भीक होना चाहिए। मनुष्य को कभी अकेले रहने से नहीं डरना चाहिए, यद्यपि वह कभी अकेला होता नहीं। भगवान् सबों के हृदय में वास करते हैं और जब तक मनुष्य मान्य विधि द्वारा शुद्ध नहीं हो लेता, तब तक उसे अकेलेपन का अनुभव होता रहेगा। किन्तु संन्यास आश्रम वाले मनुष्य को विधिपूर्वक शुद्ध होना चाहिए, इस तरह उसे सर्वत्र भगवान् की उपस्थिति का अनुभव होगा और उसे किसी का भय नहीं रह जायेगा (भले ही उसके साथ कोई न रहे)। प्रत्येक व्यक्ति निर्भय तथा ईमानदार बन सकता है यदि वह प्रत्येक आश्रम के नियत कर्तव्य का पालन करे। मनुष्य वैदिक आदेशों का श्रद्धापूर्वक श्रवण करके तथा भगवान् की भक्ति द्वारा वैदिक ज्ञान के सार को आत्मसात् करके अपने नियत कर्तव्यों में स्थिर हो सकता है।
 
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