श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 2: हृदय में भगवान्  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  2.2.6 
एवं स्वचित्ते स्वत एव सिद्ध
आत्मा प्रियोऽर्थो भगवाननन्त: ।
तं निर्वृतो नियतार्थो भजेत
संसारहेतूपरमश्च यत्र ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
एवम्—इस प्रकार; स्व-चित्ते—अपने हृदय में; स्वत:—उनकी सर्वशक्तिमत्ता से; एव—निश्चय ही; सिद्ध:—पूरी तरह प्रस्तुत; आत्मा—परमात्मा; प्रिय:—अत्यन्त प्रिय; अर्थ:—वस्तु; भगवान्—भगवान्; अनन्त:—नित्य असीम, अनन्त; तम्—उसको; निर्वृत:—संसार से विरक्त होकर; नियत—स्थायी; अर्थ:—परम लाभ; भजेत—पूजा करे; संसार-हेतु—संसार की बद्ध अवस्था का कारण; उपरम:—समाप्ति; च—निश्चय ही; यत्र—जिसमें ।.
 
अनुवाद
 
 मनुष्य को इस प्रकार स्थिर होकर, उनकी (भगवान की) सर्वशक्तिमत्ता के कारण अपने हृदय में स्थित परमात्मा की सेवा करनी चाहिए। चूँकि वे सर्वशक्तिमान, भगवान् नित्य एवं असीम हैं, अतएव वे जीवन के चरम लक्ष्य हैं और उनकी पूजा करके मनुष्य बद्ध जीवन के कारण को दूर कर सकता है।
 
तात्पर्य
 जैसाकि भगवद्गीता (१८.६१) में पुष्टि की गई है, भगवान् श्रीकृष्ण सर्वव्यापी परमात्मा हैं। अतएव जो योगी है, वह केवल उन्हीं की पूजा कर सकता है, क्योंकि वे कोई भ्रम नहीं, अपितु एक तथ्य हैं। प्रत्येक जीव किसी न किसी की सेवा में लगा हुआ है। जीव की स्वाभाविक स्थिति सेवा करने की है, किन्तु माया के वातावरण में या अस्तित्व की बद्धावस्था में बद्धजीव भ्रम की ही सेवा करने की सोचता है। बद्धजीव अपने नश्वर शरीर, अपने शारीरिक सम्बन्धियों जैसे पत्नी तथा बच्चों एवं शरीर तथा शरीर के सम्बन्धों यथा घर, भूमि, सम्पत्ति, समाज तथा देश के पालन हेतु, आवश्यक वस्तुओं की सेवा करने में, अपने को लगाता है, लेकिन उसे इसका पता नहीं रहता कि यह सारी सेवा नितान्त भ्रामक है। इसके पूर्व हम कई बार बता चुके हैं कि यह भौतिक जगत स्वयं ही भ्रम है— मरुस्थल की मृगमरीचिका के समान है। मरुस्थल में जल का भ्रम होता है और मूर्ख पशु ऐसे भ्रम का शिकार होकर मरुस्थल में पानी के लिए दौड़ लगाते हैं, यद्यपि वहाँ पानी का नाममात्र भी नहीं होता। लेकिन चूँकि मरुस्थल में जल नहीं रहता, अतएव कोई यह निष्कर्ष नहीं निकालता कि वहाँ पर कहीं भी जल नहीं है। बुद्धिमान मनुष्य जानता है कि जल तो है, लेकिन महासागरों में है, किन्तु ऐसे विशाल जलागार मरुस्थल से बहुत दूर होते हैं। अतएव मनुष्य को जल की खोज समुद्र के निकट करनी चाहिए न कि रेगिस्तान में। हममें से प्रत्येक व्यक्ति जीवन के असली सुख अर्थात् नित्य जीवन, नित्य या असीम ज्ञान तथा अमर आनन्दमय जीवन की खोज में लगा हुआ है। किन्तु जिस मूर्ख व्यक्ति को असलियत का ज्ञान नहीं है, वह जीवन के सत्य को भ्रम में ढूँढता है। यह भौतिक शरीर कभी शाश्वत नहीं होता और इस क्षणिक शरीर से सम्बद्ध सारी वस्तुएँ—यथा पत्नी, बच्चे, समाज तथा देश भी, शरीर के बदलने के साथ-साथ बदलते रहते हैं। यही संसार अर्थात् जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि का पुनरावर्तन कहलाता है। हम जीवन की इन सारी समस्याओं का हल ढूँढऩा तो चाहते हैं, लेकिन हमें वह रास्ता ज्ञात नहीं है। यहाँ पर यह सुझाव है कि जो भी जीवन के इन क्लेशों—यथा जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के पुनरावर्तन से छुटकारा पाना चाहता है उसे भगवान् की ही पूजा करनी चाहिए, अन्य किसी की नहीं जैसाकि भगवद्गीता (१८.६५) में भी सुझाव दिया गया है। यदि हम सचमुच अपने बद्धजीवन का अन्त चाहते हैं, तो हमें भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए जो अपने अंश-रूप समस्त जीवों पर सहज स्नेह के कारण प्रत्येक जीव के हृदय में विद्यमान हैं (भगवद्गीता १८.६१)। स्वाभाविक है कि माता की गोद का बालक अपनी माता से आसक्त रहे और माता भी बालक से आसक्त रहती है। किन्तु जब बालक बड़ा हो जाता है और परिस्थितियों से घिर जाता है, तो वह क्रमश: माता से विलग होता जाता है, यद्यपि माता चाहती रहती है कि बालक कुछ न कुछ सेवा करे। स्वयं भी वह उस बालक के प्रति समान रूप से वत्सल रहती है, किन्तु बालक का भूलने का स्वभाव होता है। इसी प्रकार चूँकि हम भगवान् के अंश हैं, भगवान् हम पर सदैव वत्सल रहते हैं और चाहते रहते हैं कि हम उनके धाम वापस जाँय। किन्तु हम ऐसे बद्धजीव हैं कि उनकी परवाह नहीं करते और भ्रामक शारीरिक बन्धनों के पीछे दौड़ते रहते हैं। अतएव हमें चाहिए कि संसार के सारे भ्रामक बन्धनों को तोड़ दें और भगवान् की सेवा करके, उनसे पुन: मिलने का प्रयत्न करें, क्योंकि वे ही परम सत्य हैं। वास्तव में हम उनके लिए वैसे ही लालायित रहते हैं जिस तरह बालक माता को ढूँढता रहता है। भगवान् को ढूँढने के लिए हमें कही दूर नहीं जाना है, क्योंकि वे तो हमारे हृदयों में विद्यमान हैं। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि हम पूजास्थलों पर यथा मन्दिरों, गिरजाघरों तथा मस्जिदों में न जाँय। पूजा के ये पवित्र स्थल भी भगवान् से युक्त होते हैं, क्योंकि भगवान् तो सर्वव्यापी हैं। सामान्य व्यक्ति के लिये ये पवित्र स्थान ईश-विज्ञान सिखने के केन्द्र हैं। जब मन्दिर कर्मशून्य हो जाते हैं, तो लोगों की रुचि ऐसे स्थानों में नहीं रह जाती जिससे सामान्य जनता धीरे-धीरे ईश्वरविहीन हो जाती है और ईश्वरविहीन सभ्यता का उदय होता है। ऐसी नारकीय सभ्यता से जीवन की समस्याओं में कृत्रिम तौर पर बढ़ोत्तरी होती है और लोगों का जीवन दूभर हो जाता है। ऐसी ईश्वरविहीन सभ्यता के मूर्ख कर्णधार भौतिकतावाद के पैटेण्ट ट्रेडमार्क के अन्तर्गत ईश्वरविहीन जगत में शान्ति तथा समृद्धि लाने की विविध योजनाएँ बनाते हैं। चूँकि ऐसे प्रयास भ्रामक ही होते हैं, अतएव लोग एक-एक करके अयोग्य अंधे नेताओं को चुनते हैं, जो किसी भी तरह का समाधान प्रस्तुत करने में अक्षम रहते हैं। यदि हम ईश्वरविहीन सभ्यता की इस असंगति को दूर करना चाहते हैं, तो हमें श्रीमद्भागवत जैसे शास्त्रों के नियमों का पालन करना चाहिए और श्री शुकदेव गोस्वामी जैसे व्यक्ति के आदेश का पालन करना चाहिए जिन्हें भौतिक लाभ का कोई आकर्षण नहीं था।
 
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