अन्य लोग शरीर के हृदय प्रदेश में वास करनेवाले एवं केवल एक बित्ता परिमाण के, चार हाथोंवाले तथा उनमें से प्रत्येक में क्रमश: कमल, रथ का चक्र, शंख तथा गदा धारण किये हुए भगवान् का ध्यान करते हैं।
तात्पर्य
सर्वव्यापी भगवान् प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा रूप में वास करते हैं। अन्तर्यामी परमात्मा का परिमाण बीच की अंगुली से अंगूठे तक, अर्थात् एक बित्ता या आठ इंच माना जाता है। इस श्लोक में वर्णित भगवान् का रूप विभिन्न प्रतीकों से युक्त—दाहिने हाथ के निचले भाग से बाएँ हाथ के निचले भाग में क्रमश: कमल, चक्र, शंख तथा गदा धारण किये हुए हैं—जनार्दन कहलाता है, जिसका अर्थ है जन-सामान्य को वश में रखनेवाला भगवान् का अंश। इसी प्रकार कमल, शंख आदि प्रतीकों से युक्त भगवान् के अनेक अन्य रूप हैं और वे पुरुषोत्तम, अच्युत, नरसिंह, त्रिविक्रम, हृषीकेश, केशव, माधव, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, संकर्षण, श्रीधर, वासुदेव, दामोदर, जनार्दन, नारायण, हरि, पद्मनाभ, वामन, मधुसूदन, गोविन्द, कृष्ण, विष्णुमूर्ति, अधोक्षज तथा उपेन्द्र नामों से जाने जाते हैं। अन्तर्यामी भगवान् के ये चौबीस रूप विभिन्न लोकों में पूजे जाते हैं और प्रत्येक लोक में भगवान् का एक अवतार होता है, जिसका परव्योम में एक वैकुण्ठ लोक है, जिसमें भगवान् का अवतार होता है। इनके अतिरिक्त भी भगवान् के सैकड़ों हजारों रूप हैं और इनमें से प्रत्येक का परव्योम में विशिष्ट लोक होता है, जिनमें से यह भौतिक आकाश एक खंडमात्र है। भगवान् पुरुष के रूप में विद्यमान रहते हैं, यद्यपि इस भौतिक जगत के पुरुष से उनकी कोई तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन ऐसे सारे रूप एक दूसरे से अभिन्न-अद्वैत होते हैं और इनमें से प्रत्येक रूप नित्य तरुण होता है। चतुर्भुजी तरुण भगवान् सुंदर ढंग से अलंकृत रहते हैं, जैसाकि नीचे वर्णन किया गया है।
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