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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 3: शुद्ध भक्ति-मय सेवा : हृदय-परिवर्तन  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  2.3.1 
श्री शुक उवाच
एवमेतन्निगदितं पृष्टवान् यद्भवान् मम ।
नृणां यन्म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा; एवम्—इस तरह; एतत्—यह सब; निगदितम्—उत्तरित; पृष्टवान्—तुम्हारे पूछे जाने पर; यत्—जो; भवान्—आपने; मम—मुझसे; नृणाम्—मानव का; यत्—जो; म्रियमाणानाम्—मरणासन्न; मनुष्येषु—मनुष्यों में; मनीषिणाम्—बुद्धिमान मनुष्यों के ।.
 
अनुवाद
 
 श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे महाराज परीक्षित, आपने मुझसे मरणासन्न बुद्धिमान मनुष्य के कर्तव्य के विषय में जिस प्रकार जिज्ञासा की, उसी प्रकार मैंने आपको उत्तर दिया है।
 
तात्पर्य
 सारे विश्व में मानव समाज में लाखों करोड़ों नर-नारी हैं और वे प्राय: सभी अल्पज्ञ हैं, क्योंकि उन्हें आत्मा के विषय में बहुत अल्प ज्ञान है। प्राय: सबों को जीवन की मिथ्या अव-धारणा है, क्योंकि वे अपनी पहचान स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक शरीर के रूप में करते हैं, जबकि वे ऐसे हैं नहीं। भले ही वे मानव समाज की नजरों में उच्च तथा निम्न पदों पर स्थित हों, किन्तु मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि जब तक वह अपने शरीर तथा मन से परे, अपने आत्मा के विषय में जिज्ञासा नहीं करता, तब तक मनुष्य-जीवन के उसके सारे कार्य नितान्त निष्फल हैं। इसलिए हजारों-हजार मनुष्यों में से कोई एक अपने आत्मा के विषय में जिज्ञासा करता है और वेदान्त-सूत्र, भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे शास्त्रों को पढ़ता है। किन्तु ऐसे शास्त्रों के पढऩे तथा सुनने के बावजूद भी, जब तक वह स्वरुपसिद्ध गुरु के सम्पर्क में नहीं आता, तब तक वह आत्मा की वास्तविक प्रकृति को नहीं समझ सकता। और ऐसे हजारों-लाखों व्यक्तियों में से कोई एक ऐसा निकलेगा जो वास्तव में भगवान् कृष्ण को जान सके। चैतन्य-चरितामृत (मध्य २०.१२२-१२३) में कहा गया है कि भगवान् कृष्ण ने, अपनी अहैतुकी कृपावश, व्यासदेव का अवतार लेकर मानव समाज के बुद्धिमान वर्ग पठन-पाठन के लिए वैदिक साहित्य तैयार किया, क्योंकि यह वर्ग भगवान् से अपने असली सम्बन्ध को प्राय: पूरी तरह भूला हुआ है। ऐसा बुद्धिमान वर्ग भी भगवान् के साथ अपना सम्बन्ध भूल सकता है। अतएव सम्पूर्ण भक्तियोग भूले हुए सम्बन्ध को पुन: जागृत करने के लिए है। यह पुन:जागरण केवल मनुष्य-जीवन में सम्भव है, जो चौरासी लाख योनियों का चक्र पूरा होने पर ही मिलता है। बुद्धिमान वर्ग के मनुष्यों को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। चूँकि सारे मनुष्य बुद्धिमान नहीं होते, अतएव मनुष्य-जीवन की महत्ता हमेशा ठीक से समझ में नहीं आती। यहाँ पर मनीषिणाम् अर्थात् बुद्धिमान का विशेष प्रयोग हुआ है। महाराज परीक्षित जैसे मनीषिणाम् को भगवान् कृष्ण के चरणकमल ग्रहण करने चाहिए तथा भगवान् के पवित्र नाम तथा उनकी लीलाओं के श्रवण, कीर्तन आदि में अपने को लगाना चाहिए, क्योंकि ये सभी हरिकथामृत हैं। यह कृत्य विशेष रूप से मरणासन्न व्यक्ति के लिए संस्तुत है।
 
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