भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम अर्थात् परम पुरुष कहा गया है। वे ही हैं, जो निर्विशेषवादियों को ब्रह्मज्योति में लीन करके उन्हें मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। यह ब्रह्मज्योति भगवान् से पृथक् नहीं है, जिस प्रकार प्रकाशमान सूर्य किरणें सूर्यगोलक से पृथक् नहीं होती हैं। अतएव जो परम निर्विशेष ब्रह्मज्योति में लीन होना चाहता है, उसे भी भक्तियोग द्वारा भगवान् की पूजा करनी चाहिए जैसी कि यहाँ पर संस्तुति की गई है। यहाँ पर सर्वसिद्धि प्राप्ति के साधन, भक्तियोग, पर विशेष बल दिया गया है। पिछले अध्यायों में बताया गया है कि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग दोनों का चरम लक्ष्य भक्तियोग है, उसी तरह इस अध्याय में यह घोषणा की गई है कि विभिन्न देवताओं की भिन्न भिन्न प्रकार से पूजा करने का चरम लक्ष्य भक्तियोग है। आत्म-साक्षात्कार का परम साधन होने के कारण इस प्रकार यहाँ पर भक्तियोग की संस्तुति की गई है। चाहे कोई भौतिक भोग की या भवबन्धन से मुक्ति की आकांक्षा रखता हो, प्रत्येक व्यक्ति को गम्भीरतापूर्वक भक्तियोग अपनाना चाहिए। अकाम: वह है, जिसे कोई भौतिक इच्छा न हो। पुरुषं पूर्णम् अर्थात् परम पूर्ण का अंश होने के कारण परमेश्वर की सेवा करना जीव का स्वाभाविक कार्य है, जिस तरह कि शरीर के अंग पूर्ण शरीर की सेवा करने के निमित्त होते हैं। अतएव अकाम: का अर्थ पत्थर की तरह निष्क्रिय या जड़ होना नहीं है, अपितु अपनी वास्तविक स्थिति के प्रति सचेष्ट रहना है और इस तरह से केवल परमेश्वर से तुष्टि की कामना करना है। श्रील जीव गोस्वामी ने अपने ग्रन्थ सन्दर्भ में इस अकाम-भाव का भजनीय परम- पुरुष सुख-मात्र-स्वसुखत्वम् कहकर व्याख्या की है। इसका अर्थ है कि परमेश्वर की प्रसन्नता का अनुभव करके मनुष्य प्रसन्न होता है। जीव की यह अन्तश्चेतना भौतिक जगत में जीव की बद्ध अवस्था में भी कभी-कभी प्रकट होती है और यही अन्तश्चेतना अल्पज्ञ व्यक्तियों के अविकसित मनों द्वारा परोपकार, समाजवाद, साम्यवाद इत्यादि में अभिव्यकत होती है। सांसारिक क्षेत्र में समाज, समुदाय, परिवार, देश या मानवता के रूप में अन्यों की भलाई करने का दिखावा उसी मूल भावना की आंशिक अभिव्यक्ति होता है, जिसमें शुद्ध जीव परमेश्वर की प्रसन्नता को अपनी प्रसन्नता समझता है। ऐसी उत्कृष्ट भावनाएँ व्रजभूमि की गोपियों द्वारा भगवान् की प्रसन्नता के लिए प्रकट की गई थीं। गोपियों ने, किसी प्रतिफल के बिना, भगवान् से प्रेम किया और यह अकाम भावना की पूर्ण अभिव्यञ्जना है। काम मनो-भाव अर्थात् अपनी तुष्टि के भाव की पूर्ण अभिव्यञ्जना भौतिक जगत में होती है, जबकि अकाम: भाव पूर्ण रुप से आध्यात्मिक जगत में प्रकट होता है।
भगवान् में तदाकार होने का भाव या ब्रह्मज्योति में लीन होने का भाव भी काम भाव का प्रदर्शन माना जा सकता है यदि ये भाव, भौतिक कष्टों से मुक्त होने के लिए हों। इसीलिए, भक्त कभी भी मोक्ष इसलिए नहीं चाहता कि वह जीवन के कष्टों से मुक्त हो जाय। ऐसे मोक्ष के बिना भी शुद्ध भक्त सदैव भगवान् की तुष्टि की कामना करता है। अर्जुन ने काम भाव से प्रेरित होकर कुरुक्षेत्र की युद्ध-भूमि में लडऩे से इनकार कर दिया था, क्योंकि वह अपनी तुष्टि के लिए अपने सम्बन्धियों को बचाना चाह रहा था। किन्तु शुद्ध भक्त होने के कारण भगवान् के आदेश पर वह युद्ध करने के लिए तैयार हो गया, क्योंकि उसे ज्ञान हो चुका था और उसने अनुभव किया कि अपनी तुष्टि की बलि देकर भगवान् की तुष्टि करना उसका परम कर्तव्य है। इस तरह वह अकाम हो गया। यह पूर्णजीव की पूर्णावस्था (सिद्धावस्था) है।
उदार-धी: का अर्थ है व्यापक दृष्टिवाला या उदार-चेता। जो लोग भौतिक भोग की कामना करते हैं, वे छोटे-मोटे देवताओं को पूजते हैं। भगवद्गीता (७.२०) में ऐसी बुद्धि को हृतज्ञान अर्थात् ऐसे व्यक्ति की बुद्धि जो संज्ञाशून्य हो चुका हो, कह कर भर्त्सना की गई है। कोई भी व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति लिए बिना देवताओं से कोई भी फल प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए व्यापक दृष्टिवाला व्यक्ति यह देख सकता है कि भौतिक लाभों के लिए भी अन्तिम प्राधिकारी (सत्ता) भगवान् ही हैं। ऐसी परिस्थिति में, व्यापक दृष्टिवाले व्यक्ति को चाहिए कि वह सीधे भगवान् की पूजा करे, भले ही वह भौतिक भोग या मुक्ति की कामना क्यों न कर रहा हो। चाहे कोई अकाम हो या सकाम या मोक्षकाम, हर एक को तत्परता से भगवान् की पूजा करनी चाहिए। इसका अर्थ यह होता है कि कर्म तथा ज्ञान के किसी प्रकार के मिश्रण के बिना ही, भक्तियोग पूरी तरह लागू किया जा सकता है। जैसे अमिश्रित सूर्य की किरण अत्यन्त तीव्र होती है। इसी तरह श्रवण, कीर्तन इत्यादि का अमिश्रित भक्तियोग आन्तरिक उद्देश्य से निरपेक्ष होकर सबों के द्वारा सम्पन्न किया जा सकता है।