श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 3: शुद्ध भक्ति-मय सेवा : हृदय-परिवर्तन  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  2.3.11 
एतावानेव यजतामिह नि:श्रेयसोदय: ।
भगवत्यचलो भावो यद् भागवतसंगत: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
एतावान्—ये भिन्न पूजक; एव—निश्चय ही; यजताम्—पूजा करते हुए; इह—इस जीवन में; नि:श्रेयस—सर्वोच्च वर; उदय:— विकास; भगवति—परमेश्वर पर; अचल:—निश्चल; भाव:—आकर्षण; यत्—जो; भागवत—भगवान् के शुद्ध भक्त की; सङ्गत:—संगति से ।.
 
अनुवाद
 
 अनेक देवताओं की पूजा करनेवाले विविध प्रकार के लोग, भगवान् के शुद्ध भक्त की संगति से ही सर्वोच्च सिद्धिदायक वर प्राप्त कर सकते हैं, जो भगवान् पर अविचल आकर्षण के रूप में होता है।
 
तात्पर्य
 इस भौतिक सृष्टि में प्रथम देवता ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक विभिन्न योनियों के सारे जीव, प्रकृति के नियम या भगवान् की बहिरंगा शक्ति के अधीन हैं। जीव अपनी शुद्ध अवस्था में जानता रहता है कि वह भगवान् का अंश है, किन्तु जब जीव, भौतिक शक्ति पर प्रभुत्व जताने की इच्छा के कारण, भौतिक जगत में आ गिरता है, तो वह प्रकृति के तीन गुणों द्वारा बद्ध हो जाता है और वह अधिकाधिक लाभ के लिए जीवन-संघर्ष करता है। यह जीवन-संघर्ष, भौतिक भोग के वशीभूत होकर, मायाजाल के पीछे भागने के सदृश है। भौतिक भोग की सारी योजनाएँ, चाहे वे विभिन्न देवताओं की पूजा द्वारा सम्पन्न हों जैसाकि इसी अध्याय के पिछले श्लोकों में बताया गया है अथवा ईश्वर या देवता की सहायता के बिना वैज्ञानिक ज्ञान की आधुनीकृत प्रगति हो, मात्र भ्रम हैं, क्योंकि सुख की इन समस्त योजनाओं के बावजूद बद्धजीव भौतिक सृष्टि के सम्पर्क में रहकर जीवन की समस्याओं को—जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग को—कभी हल नहीं कर सकता। विश्व का इतिहास ऐसे योजना-निर्माताओं से भरा पड़ा है। अनेक राजा-महाराज आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनकी कहानी ही शेष रह जाती है और जीवन की मुख्य समस्या इन योजना-निर्माताओं के बावजूद जैसी की तैसी बनी रहती है।

वास्तव में यह मनुष्य जीवन, जीवन की समस्याओं का हल ढूँढऩे के लिए प्राप्त हुआ है। किन्तु विभिन्न देवताओं को प्रसन्न करके, पूजा की विविध विधियों से या ईश्वर अथवा देवताओं की सहायता लिए बिना ज्ञान के तथाकथित वैज्ञानिक विकास से, मनुष्य इन समस्याओं को हल नहीं कर सकता। ईश्वर या देवता की परवाह न करनेवाले निपट भौतिकतावादियों के अतिरिक्त, सारे वेद विभिन्न लाभों के लिए विभिन्न देवताओं की पूजा करने की संस्तुति करते हैं। अतएव ये देवता न तो मिथ्या हैं, न काल्पनिक। देवता हमारी ही तरह वास्तविक हैं, लेकिन ब्रह्माण्डीय-सरकार के विभिन्न विभागों का प्रबन्ध करने में वे भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा में लगे रहने से अत्यधिक शक्तिशाली होते हैं। भगवद्गीता से इसकी पुष्टि होती है और उसमें परमदेव ब्रह्मा समेत देवताओं के विभिन्न लोकों का उल्लेख है। निपट भौतिकतावादी लोग ईश्वर या देवताओं के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते। न ही वे यह विश्वास करते हैं कि भिन्न-भिन्न लोकों में विभिन्न देवताओं का आधिपत्य है। वे निकटतम दैवी पिंड (उपग्रह) चन्द्रलोक तक पहुँचने में काफी हंगामा खड़ा कर रहे हैं, लेकिन इतने यान्त्रिक शोध के बाद भी वे चन्द्रमा के विषय में बहुत कम सूचना एकत्र कर पाये हैं और चन्द्रमा में भूखण्ड बेचने के झूठे विज्ञापन के बावजूद गर्वित विज्ञानी या निपट भौतिकतावादी वहाँ रह नहीं सकते। अन्य लोकों की तो बातें करना व्यर्थ है, क्योंकि वे उनकी गणना भी नहीं कर सकते। किन्तु वेदों के अनुयायी भिन्न विधि से ज्ञान प्राप्त करते हैं। वे वैदिक साहित्य के कथनों को प्रमाण मानते हैं, जैसाकि हम प्रथम स्कंध में कह चुके हैं। अतएव उन्हें ईश्वर तथा देवताओं के विषय में और उसी के साथ-साथ भौतिक जगत की परिधि में स्थित भौतिक आकाश की सीमा से परे विभिन्न आवासीय लोकों का पूरा-पूरा एवं संतोषजनक ज्ञान होता है। जिस सर्वाधिक प्रामाणिक साहित्य को शंकर, रामानुज, मध्व, विष्णुस्वामी, निम्बार्क तथा चैतन्य जैसे भारतीय आचार्यों ने स्वीकार किया है और जिसका अध्ययन सभी महत्त्वपूर्ण महापुरुषों ने किया है, वह भगवद्गीता है, जिसमें देवताओं की पूजा तथा उनके अपने-अपने आवासीय लोकों का उल्लेख है। भगवद्गीता (९.२५) पुष्टि करती है—

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रता:।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥

“देवताओं के उपासक देवताओं के लोकों को जाते हैं और पितरों के पूजक पितृलोक को जाते हैं। निपट भौतिकतावादी भिन्न-भिन्न भौतिक लोक में रह जाते हैं, किन्तु भगवद्भक्त भगवान् के धाम पहुँच जाते हैं।”

भगवद्गीता से हमें यह भी जानकारी मिलती है कि इस जगत के सारे लोक, जिनमें ब्रह्मलोक भी सम्मिलित है, अस्थायी रूप से स्थित होते हैं और कुछ काल के बाद उनका विनाश हो जाता है। अतएव देवता तथा उनके अनुयायी भी प्रलय के समय विनष्ट हो जाते हैं, किन्तु जो भगवद्धाम पहुँच जाता है, वह शाश्वत जीवन का लाभ भोगता है। यह वैदिक साहित्य का मत है। देवताओं के उपासकों को नास्तिकों की तुलना में केवल एक लाभ है कि वे वैदिक निर्णय से आश्वस्त रहते हैं जिससे वे भगवद्भक्तों की संगति में रहकर परमेश्वर की पूजा के लाभ की जानकारी प्राप्त करते हैं। किन्तु निपट भौतिकतावादी को वैदिक निर्णय में कोई श्रद्धा नहीं होती, अतएव वह सदैव अपूर्ण प्रयोगात्मक ज्ञान या तथाकथित भौतिक ज्ञान के आधार पर झूठे विचार को प्राप्त होता है, जो कभी दिव्य ज्ञान को नहीं पा सकता।

अतएव जब तक निपट भौतिकतावादी या क्षणभंगुर देवताओं के उपासक किसी भगवद्भक्त के सम्पर्क में नहीं आ जाते तब तक उनके सारे प्रयास व्यर्थ जाते हैं। केवल दैवी पुरुषों, या भगवद्भक्तों के अनुग्रह से ही मनुष्य शुद्ध भक्ति प्राप्त कर सकता है और वही मानव जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है। केवल शुद्ध भक्त ही उसे उन्नतिशील जीवन का सही मार्ग दिखला सकता है। अन्यथा ईश्वर या देवताओं के विषय में कोई सूचना न होना तथा क्षणिक भोग की खोज में देवताओं की पूजा में संलग्न जीवन—

ये दोनों ही भौतिकतावादी जीवन-शैलियाँ मृग-मरीचिका के विभिन्न पहलू हैं। इनकी सुन्दर व्याख्या भगवद्गीता में भी हुई है, लेकिन उसे भक्तों की संगति में ही समझा जा सकता है, राजनीतिज्ञों या शुष्क ज्ञानियों की विवेचनाओं से नहीं।

 
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