शौनक उवाच
इत्यभिव्याहृतं राजा निशम्य भरतर्षभ: ।
किमन्यत्पृष्टवान् भूयो वैयासकिमृषिं कविम् ॥ १३ ॥
शब्दार्थ
शौनक: उवाच—शौनक ने कहा; इति—इस प्रकार; अभिव्याहृतम्—जो कुछ कहा गया; राजा—राजा ने; निशम्य—सुनकर; भरत-ऋषभ:—महाराज परीक्षित; किम्—क्या; अन्यत्—अधिक; पृष्टवान्—पूछा; भूय:—पुन:; वैयासकिम्—व्यास के पुत्र से; ऋषिम्—दक्ष; कविम्—काव्यमय ।.
अनुवाद
शौनक ने कहा : व्यास-पुत्र श्रील शुकेदव गोस्वामी अत्यन्त विद्वान ऋषि थे और बातों को काव्यमय ढंग से प्रस्तुत करने में सक्षम थे। अतएव जो कुछ उन्होंने कहा, उसे सुनने के बाद महाराज परीक्षित ने उनसे और क्या पूछा?
तात्पर्य
भगवद्भक्त में सारे दैवीगुण स्वत: विकसित होते हैं। इन गुणों में से कुछ महत्त्वपूर्ण गुण इस प्रकार हैं—वह दयालु, शान्त, सत्यवादी, समदर्शी, त्रुटिरहित, उदार, मृदु, स्वच्छ, अनासक्त, सर्व शुभैषी, सन्तुष्ट, कृष्ण का शरणागत, लालसा-रहित, सरल, स्थिर, आत्माराम, नियमित आहार करनेवाला, ज्ञानी, शिष्ट, निरभिमान, गम्भीर, सहानुभूतिशील, मैत्री भाववाला, कवि-हृदय, दक्ष होता है तथा मौन रहता है। भक्त के इन छब्बीस गुणों में, जिनका वर्णन कृष्णदास कविराज ने चैतन्य- चरितामृत में किया है, कवि-हृदय का विशेष उल्लेख शुकदेव गोस्वामी के लिए हुआ है। उन्होंने श्रीमद्भागवत को सुनकर जिस तरह प्रस्तुत किया, वह उनकी कवित्व-शक्ति का परिचायक है। वे स्वरूप-सिद्ध विद्वान ऋषि थे। दूसरे शब्दों में, वे ऋषियों में कवि थे।
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