श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 3: शुद्ध भक्ति-मय सेवा : हृदय-परिवर्तन  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  2.3.15 
स वै भागवतो राजा पाण्डवेयो महारथ: ।
बालक्रीडनकै: क्रीडन् कृष्णक्रीडां य आददे ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; वै—निश्चय ही; भागवत:—भगवान् के महान् भक्त; राजा—महाराज परीक्षित; पाण्डवेय:—पाण्डवों का पौत्र; महा रथ:—महान् योद्धा; बाल—बाल्यावस्था में ही; क्रीडनकै:—खिलौनों के साथ; क्रीडन्—खेलते हुए; कृष्ण—भगवान् कृष्ण के; क्रीडाम्—कार्य-कलापों को; य:—जिसने; आददे—स्वीकार किया ।.
 
अनुवाद
 
 पाण्डवों के पौत्र महाराज परीक्षित अपने बाल्यकाल से भगवान् के महान् भक्त थे। वे खिलौनों से खेलते समय भी अपने कुलदेव की पूजा का अनुकरण करते हुए भगवान् कृष्ण की पूजा किया करते थे।
 
तात्पर्य
 भगवद्गीता में यह कहा गया है कि जो व्यक्ति समुचित रीति से योगाभ्यास करने में विफल रह जाता है, उसे भी ब्राह्मणों या सम्पन्न क्षत्रिय राजाओं या वणिकों के घर में जन्म लेने का अवसर प्रदान किया जाता है। किन्तु महाराज परीक्षित तो इनसे बढक़र थे, क्योंकि वे अपने पूर्वजन्म में भी महान् भगवद्भक्त थे। अतएव उन्होंने कुरुओं के राजवंश में और विशेष रूप से पाण्डवों के कुल में, जन्म लिया। अत: उन्हें बचपन से ही अपने परिवार में भगवान् कृष्ण की भक्ति से भलीभाँति परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। सारे पाण्डव स्वयं भगवान् के भक्त होने के कारण राजमहल के कुलदेवता का सम्मान करते थे। सौभाग्यवश ऐसे परिवारों में जन्म लेनेवाले बालक अपने बाल्यकाल के खेलों में भी ऐसी देवपूजा का अनुसरण करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से हमें भी एक वैष्णव कुल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और हमने अपने पिता का अनुकरण करते हुए बचपन में भगवान् कृष्ण की पूजा का अनुसरण किया। हमारे पिता हमें सभी उत्सव मनाने के लिए प्रोत्साहित करते रहे, चाहे वह रथ यात्रा हो या दोल यात्रा और हम बालकों को तथा हमारे मित्रों को प्रसाद वितरित करने में खुले दिल से धन भी व्यय करते रहे। हमारे गुरु भी वैष्णव कुल में उत्पन्न हुए थे और उन्हें अपने महान् वैष्णव पिता ठाकुर भक्तिविनोद से सारा प्रोत्साहन प्राप्त होता रहा। सारे भाग्यशाली वैष्णव परिवारों में ऐसा ही होता है। सुप्रसिद्ध मीराबाई गोवर्धन-धारी भगवान् कृष्ण की महान् भक्तिन थीं।

ऐसे भक्तों का जीवन बहुधा एक-जैसा होता है, क्योंकि भगवान् के सभी बड़े-बड़े भक्तों के प्रारम्भिक जीवन में समानता रहती है। जीव गोस्वामी के अनुसार, महाराज परीक्षित ने भगवान् कृष्ण की वृन्दावन की बाललीलाओं को अवश्य सुना होगा, क्योंकि वे अपने किशोर सखाओं के साथ इन लीलाओं का अनुकरण करते थे। श्रीधर स्वामी के अनुसार, महाराज परीक्षित गुरुजनों द्वारा कुलदेवता की पूजा का अनुकरण करते थे। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने भी श्रील जीव गोस्वामी के कथन की पुष्टि की है। उनके मतानुसार महाराज परीक्षित को बाल्यकाल से ही भगवान् कृष्ण की भक्ति में आसक्ति थी। उन्होंने उपर्युक्त कार्यकलापों में से किसी का अनुकरण किया होगा और ये सभी कार्यकलाप यह सिद्ध करते हैं कि वे बाल्यकाल से भक्त थे, जो कि महाभागवत का लक्षण है। ऐसे महाभागवत नित्य-सिद्ध कहलाते हैं, जिसका अर्थ है जन्म से ही मुक्तात्मा होना, किन्तु ऐसे भी लोग हैं, जो जन्म से ही मुक्त न हों, अपितु संगति से भक्ति की प्रवृत्ति विकसित करते हों। ऐसे लोग साधन सिद्ध कहलाते हैं। अन्ततोगत्वा इन दोनों में कोई अन्तर नहीं रहता अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि शुद्ध भक्तों की संगति से कोई भी साधनसिद्ध भगवद्भक्त बन सकता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण हमारे महान् गुरु श्री नारद मुनि हैं। अपने पूर्व-जन्म में वे मात्र एक दासीपुत्र थे, किन्तु महान् भक्तों की संगति से, वे ऐसे भगवद्भक्त बन गये जो भक्ति-मय सेवा के इतिहास में अद्वितीय हैं।

 
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