वैयासकिश्च भगवान् वासुदेवपरायण: ।
उरुगायगुणोदारा: सतां स्युर्हि समागमे ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
वैयासकि:—व्यासदेव के पुत्र; च—भी; भगवान्—दिव्य ज्ञान से पूर्ण; वासुदेव—भगवान् कृष्ण पर; परायण:—अनुरक्त; उरुगाय—महान् दार्शनिकों द्वारा महिमान्वित भगवान् कृष्ण का; गुण-उदारा:—महान् गुण; सताम्—भक्तों का; स्यु:—अवश्य हुआ; हि—निश्चय ही; समागमे—उपस्थिति से ।.
अनुवाद
व्यासपुत्र शुकदेव गोस्वामी दिव्य ज्ञान से पूर्ण भी थे और वसुदेव-पुत्र भगवान् श्रीकृष्ण के महान् भक्त भी थे। अतएव भगवान् कृष्ण-विषयक चर्चाएँ अवश्य चलती रही होंगी, क्योंकि बड़े-बड़े दार्शनिकों द्वारा तथा महान् भक्तों की सभा में कृष्ण के गुणों का बखान होता ही रहता है।
तात्पर्य
इस श्लोक में सताम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सताम् का अर्थ है ‘शुद्ध भक्त’ जिसे भगवान् की सेवा करने के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की इच्छा नहीं रहती। ऐसे भक्तों की संगति में ही भगवान् कृष्ण के दिव्य यश का सही-सही वर्णन हो सकता है। भगवान् ने कहा है कि उनकी कथाएँ आध्यात्मिक महत्त्व से युक्त होती हैं और यदि कोई एक बार भी सताम् की संगति में भगवान् के विषय में श्रवण करता है, तो उसे इस महान् शक्ति का आभास मिल जाता है और उसमें स्वत: भक्ति उत्पन्न हो जाती है। जैसाकि पहले कहा जा चुका है, महाराज परीक्षित जन्म से ही भगवान् के भक्त थे। उसी तरह शुकदेव गोस्वामी भी थे। वे दोनों समान स्तर पर थे, यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि महाराज परीक्षित राजसी सुविधाओं के अभ्यस्त थे जबकि शुकदेव गोस्वामी एक आदर्श महान् त्यागी थे, यहाँ तक कि वे शरीर में वस्त्र भी नहीं धारण करते थे। ऊपर-ऊपर से दोनों में विरोधाभास दिख सकता है, लेकिन मूलत: दोनों ही अनन्य शुद्ध भगवद्भक्त थे। जब ऐसे भक्त इकट्ठे जुटते हैं, तो उनके पास भगवान् की महिमा-चर्चा करने या भक्तियोग के अतिरिक्त अन्य कोई विषय नहीं रहता। भगवद्गीता में भी जब भगवान् तथा उनके भक्त अर्जुन के बीच वार्ता हुई तो भक्तियोग के अतिरिक्त कोई दूसरी चर्चा नहीं हो सकती थी। फिर भी इस पर संसारी विद्वान अपने-अपने तरीके से सोच सकते हैं। श्रील जीव गोस्वामी के अनुसार, वैयासकि: शब्द के बाद च शब्द का प्रयोग यह बताता है कि शुकदेव गोस्वामी तथा महाराज परीक्षित दोनों ही पहले से ही एक कोटि के थे, यद्यपि उनमें से एक गुरु की भूमिका निभा रहा था और दूसरा शिष्य की। चूँकि श्रीकृष्ण ही कथाओं के केन्द्र हैं, अतएव वासुदेव-परायण: शब्द वासुदेव के भक्त को सामान्य लक्ष्य के तौर पर सूचित करता है। यद्यपि वहाँ पर अनेक अन्य लोग एकत्रित थे जहाँ महाराज परीक्षित उपवास कर रहे थे, लेकिन सहज निष्कर्ष यह निकलता है कि वहाँ पर कृष्ण के महिमा-गायन के अतिरिक्त अन्य कोई चर्चा नहीं हुई होगी, क्योंकि प्रमुख वक्ता शुकदेव गोस्वामी थे और प्रमुख श्रोता महाराज परीक्षित थे। अतएव भगवान् के दो प्रमुख भक्तों के बीच कहे तथा सुने जाने के कारण श्रीमद्भागवत भगवान् श्रीकृष्ण के महिमा-गायन के ही निमित्त है।
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