श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 3: शुद्ध भक्ति-मय सेवा : हृदय-परिवर्तन  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  2.3.17 
आयुर्हरति वै पुंसामुद्यन्नस्तं च यन्नसौ ।
तस्यर्ते यत्क्षणो नीत उत्तमश्लोकवार्तया ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
आयु:—उम्र; हरति—घटाता है; वै—निश्चय ही; पुंसाम्—लोगों की; उद्यन्—उदय होते; अस्तम्—अस्त होते; च—भी; यन्— चलते हुए; असौ—सूर्य; तस्य—भगवान् की महिमा का गायन करनेवाले का; ऋते—सिवाय; यत्—जिससे; क्षण:—समय; नीत:—उपयोग किया हुआ; उत्तम-श्लोक—सर्वोत्तम भगवान् की; वार्तया—वार्ताओं में ।.
 
अनुवाद
 
 उदय तथा अस्त होते हुए सूर्य सबों की आयु को क्षीण करता है, किन्तु जो सर्वोत्तम भगवान् की कथाओं की चर्चा चलाने में अपने समय का सदुपयोग करता हैं, उसकी आयु क्षीण नहीं होती।
 
तात्पर्य
 यह श्लोक, अप्रत्यक्ष रूप से, भक्ति-मय सेवा को त्वरित करके भगवान् के भूले सम्बन्धों की अनुभूति कराने के लिए मानव जीवन का सदुपयोग करने की महत्ता की पुष्टि करता है। कहा गया है कि काल तथा ज्वार-भाटा किसी की प्रतीक्षा नहीं करते। अतएव सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक का समय व्यर्थ ही बीतेगा, यदि इसका उपयोग आध्यात्मिक मूल्यों की पहचान के लिए नहीं किया जाता। जीवन-काल के किसी अंश के नष्ट हो जाने पर कितनी भी स्वर्ण-राशि देकर इसकी भरपाई नहीं की जा सकती। जीव को यह मनुष्य-जीवन इसलिए प्रदान किया जाता है कि वह अपनी आध्यात्मिक पहचान एवं अपने सुख के स्थायी स्रोत को जान सके। जीव तो और वह भी मनुष्य, सुख की तलाश में रहता है, क्योंकि सुख जीव की प्राकृतिक अवस्था है। किन्तु वह भौतिक परिवेश में व्यर्थ ही उसकी खोज करता है। जीव स्वाभाविक दृष्टि से परम पूर्ण का आध्यात्मिक स्फुलिंग है और उसका सुख उसके आध्यात्मिक कार्यों से पूर्णत: अनुभवगम्य है। भगवान् पूर्ण आत्मा हैं और उनका नाम, रूप, गुण, लीलाएँ, पार्षद तथा व्यक्तित्व सभी उनसे अभिन्न हैं। मानव के एक बार भक्ति के सही मार्ग से भगवान् की उपर्युक्त शक्तियों में से किसी एक के भी सम्पर्क में आते ही, तुरन्त उसके लिए सिद्धि के द्वार खुल जाते हैं। भगवद्गीता (२.४०) में भगवान् ने ऐसे सम्पर्क की व्याख्या इन शब्दों में की है, “भक्ति के लिए किये गये प्रयास निष्फल नहीं होते। ऐसे कार्यों का शुभारम्भ भी मनुष्य को भौतिक भय के पारावार से उबारने के लिए पर्याप्त है।” जिस प्रकार उच्चतम क्षमता की औषधि नसों के माध्यम से इंजेक्शन लगाते ही सारे शरीर पर अपना प्रभाव दिखा देती है, उसी प्रकार भगवद्भक्त के कर्ण-कुहरों में प्रविष्ट होनेवाली भगवान् की कथाएँ बड़ी तेजी से कार्य करती हैं। दिव्य कथाओं का श्रवण द्वारा पान करने का अर्थ है पूर्ण अनुभूति, जिस तरह वृक्ष के किसी अंग में फल लगने का अर्थ है पूरे वृक्ष का फलित होना। शुकदेव गोस्वामी जैसे शुद्ध भक्त के संग में की गई यह क्षणमात्र की अनुभूति मनुष्य-जीवन को अमरत्व प्रदान करती है। इस प्रकार सूर्य शुद्ध भक्त की आयु को चुरा नहीं पाता, क्योंकि भक्त भगवान् की सेवा में लगा रहकर अपने जीवन को शुद्ध कर लेता है। मृत्यु शाश्वत जीव के भौतिक संदूषण का लक्षण है। इसी संदूषण के कारण जीव जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के नियमों के अधीन हो जाता है।

जैसाकि श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने उद्धरण दिया है, दान जैसे पुण्य कर्म की भौतिक रीति की संस्तुति स्मृति शास्त्रों द्वारा की गई है। सुपात्र को दान में दिया गया धन अगले जीवन के लिए सुनिश्चित बैंक-बचत जैसा है। ऐसा दान ब्राह्मण को दिये जाने की संस्तुति है। यदि यह धन अब्राह्मण (ब्राह्मण गुणों से विहीन) को दान में दिया जाता है, तो वह उसी अनुपात में अगले जन्म में वापस हो जाता है। यदि यह धन अर्धशिक्षित ब्राह्मण को दिया जाता है, तो भी यह दुगुना होकर लौट आता है। किन्तु यदि यह धन पूर्णत: योग्य ब्राह्मण को दिया जाता है, तो वह सैंकड़ों हजारों गुना होकर वापस मिलता है। यदि यही धन वेद-पारग (जिसे सचमुच वेदों के पथ की अनुभूति हो चुकी है) को दिया जाता है, तो वह असंख्य गुना होकर मिलता है। वैदिक ज्ञान का चरम लक्ष्य भगवान् कृष्ण की अनुभूति है जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है (वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्य:)। दान में जो भी धन दिया जाता है उसके लौटने की गारंटी है, चाहे उसका अनुपात जो भी हो। इसी प्रकार, शुद्ध भक्त की संगति से भगवान् की दिव्य कथाओं के श्रवण तथा कीर्तन में बिताया गया एक क्षण शाश्वत जीवन या भगवद्धाम लौटने की पूरी गारंटी है। मद्धाम गत्वा पुनर्जन्म न विद्यते। दूसरे शब्दों में, भगवद्भक्त को शाश्वत जीवन की गारंटी रहती है। इस जीवन में भक्त का बुढ़ापा या रोग ऐसे गारंटीयुक्त शाश्वत जीवन के लिए प्रोत्साहन मात्र ही है।

 
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