जन-सामान्य को यदि जीवन के उच्चतर आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जाती तो वे पशु से भी अधम हैं और इस श्लोक में उनकी समता कुत्तों, शूकरों, ऊँटों तथा गधों से की गई है। आधुनिक विश्वविद्यालय की शिक्षा एक तरह से मनुष्य को कूकरों की मनोवृत्ति प्रदान करती है, जिससे किसी बड़े मालिक की सेवा की जाय। तथाकथित शिक्षा को पूरी कर लेने के बाद तथाकथित शिक्षित व्यक्ति किसी नौकरी के लिए द्वार-द्वार कुत्तों की भाँति घूमते रहते हैं और उनमें से अधिकतर यह कहकर दुत्कार दिये जाते हैं कि कोई स्थान नहीं हैं। जिस प्रकार कुत्ते उपेक्षित पशु हैं और एक रोटी के टुकड़े के लिए अपने स्वामी की आज्ञापूर्वक सेवा करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी पर्याप्त फल पाये बिना स्वामी की आज्ञा का पालन करता है। जो लोग खाने के मामले में कोई भेदभाव नहीं बरतते और सभी प्रकार की सड़ी-गली वस्तुएँ खाते हैं, वे शूकर तुल्य हैं। शूकरों को मल खाना पसन्द है। इस तरह मल पशु विशेष का प्रिय खाद्य है। इसी तरह कुछ पशु या पक्षी पत्थर तक खाते हैं। किन्तु मनुष्य सभी तरह की वस्तुएँ खाने के लिए नहीं बना; वह तो अन्न, शाक, फल, दूध, चीनी इत्यादि खाने के लिए आया है। पशु-आहार मनुष्यों के लिए नहीं है। ठोस भोजन चबाने के लिए मनुष्य में विशेष प्रकार के दाँत होते हैं जिनसे वह फल तथा शाक काट सकता है। मनुष्य के दो कुकुर-दाँत भी होते हैं जिनसे, यदि वह चाहे तो, पशु-भोजन खा सकता है। यह सबों को ज्ञात है कि एक मनुष्य के लिए जो भोजन है, वही दूसरे मनुष्य के लिए विष हो सकता है। मनुष्यों से अपेक्षा की जाती है कि वे भगवान् श्रीकृष्ण को अर्पित भोग के बचे-खुचे अंश को ग्रहण करेंगे और भगवान् पत्र, पुष्प, फल आदि ग्रहण करते हैं (भगवद्गीता ९.२६)। वैदिक शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान् को कभी पशु-आहार अर्पित नहीं करना चाहिए। अतएव मनुष्य विशेष प्रकार का भोजन करने के लिए है। उसे तथाकथित विटामिनों की पूर्ति के लिए पशुओं का अनुकरण नहीं करना चाहिए। अतएव जो व्यक्ति भोजन के मामले में विवेक से काम नहीं लेता, उसे शूकर के तुल्य बताया गया है।
ऊँट एक ऐसा पशु है, जो कँटीली वस्तुएँ खाने से आनन्दित होता है। जो व्यक्ति पारिवारिक जीवन या तथाकथित भोग का सांसारिक जीवन बिताना चाहता है, उसकी तुलना ऊँट से की गई है। भौतिकतावादी जीवन काँटों से भरा हुआ है अतएव मनुष्य को चाहिए कि वैदिक अनुष्ठानों की संस्तुत विधि के अनुसार जीवनयापन करे, जिससे बुरे से बुरे सौदे से भी लाभ लिया जा सके। भौतिक जगत में अपना ही खून चूस कर पालन-पोषण करना होता है। भौतिक भोग का आकर्षण-केन्द्र विषयी जीवन है। विषयी जीवन का भोग अपना खून चूसना होता है, इस प्रसंग में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। ऊँट भी, कँटीली टहनियाँ चबाते समय, अपना रक्त चूसता है। ऊँट जिन कँटीली टहनियों को खाता है, वे उसकी जीभ को काट देती हैं, जिससे उसके मुँह के भीतर खून आने लगता है। रक्त के साथ मिलकर काँटे मूर्ख ऊँट के लिए स्वाद उत्पन्न कर देते हैं और वह झूठे आनन्द के साथ काँटे खाने में लगा रहता है। इसी प्रकार बड़े-बड़े व्यापारी और उद्योगपति जो विभिन्न साधनों से या संदेहास्पद साधनों से धन कमाने के लिए कठोर श्रम करते हैं, अपने रक्त से मिश्रित अपने कर्मों का कँटीला फल खाते हैं। इसीलिए भागवत में इन रुग्ण पुरुषों की गणना ऊँटों के साथ की गई है।
गधा ऐसा पशु है, जो पशुओं में सबसे बड़ा मूर्ख माना जाता है। गधा कठिन श्रम करता है और, बिना किसी लाभ के, भारी से भारी बोझ ढोता है*। सामान्यतया धोबी गधे को रखता है, जिसकी स्वयं की स्थिति सम्मानजनक नहीं होती और गधे की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि गधी द्वारा उसे डुलत्ती मारे जाने पर वह उसका अभ्यस्त हो जाता है। जब गधा मैथुन के लिए ललचाता है, तो गधी दुलत्ती चलाती है, फिर भी गधा मैथुन के लिए उसके पीछे-पीछे लगा रहता है। अतएव पत्नी के गुलाम की तुलना गधे से की जाती है। जनसामान्य, इस कलियुग में विशेषरूप से, अत्यधिक श्रम करता है। वह गधे के कार्य में लगा रहता है, वह भारी बोझा ढोता है और ठेला तथा रिक्शा खींचता है। मानव सभ्यता के तथाकथित विकास ने मनुष्य को गधे के कार्य में लगा रखा है। बड़ी-बड़ी फैक्टरियों तथा कार्यशालाओं में भी श्रमिक-गण भारी काम में लगे रहते हैं और दिन भर कठिन श्रम करने के बाद फिर से बेचारे मजदूर को घर पर न केवल कामसुख के लिए अपितु अनेक घरेलू कार्यों के लिए उसकी स्त्री लतियाती है।
अतएव श्रीमद्भागवत द्वारा आध्यात्मिक प्रकाश के बिना सामान्य मनुष्य को कूकरों, शूकरों, ऊँटों तथ गधों की श्रेणी में रखा जाना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं है। भले ही ऐसे अज्ञानी जनसमूह के नेता तमाम शूकरों द्वारा पूजित होने के लिए गर्वित हों, किन्तु यह कोई सम्मान नहीं है। भागवत तो खुला घोषित करती है कि कोई व्यक्ति भले ही ऐसे कूकरों-सूकरों के वेश में मनुष्यों का नेता हो, किन्तु यदि उसे कृष्ण के विज्ञान से अवगत होने में अभिरुचि नहीं है, तो ऐसा व्यक्ति पशु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उसे शक्तिशाली प्रबल पशु या विशाल पशु कहा जा सकता है, किन्तु श्रीमद्भागवत के अनुसार, उसे अपने नास्तिकतावादी स्वभाव के कारण मनुष्य की कोटि में कभी नहीं रखा जा सकता। अथवा दूसरे शब्दों में, कूकरों-सूकरों जैसे व्यक्तियों के ईश्वर-विहीन नेता पशुओं से भी बढक़र हैं, जिनमें पाशविक गुणों का अनुपात अधिक है।
* मनुष्य जीवन मूल्यों की प्राप्ति के लिए है। यह जीवन अर्थदम् अर्थात् मूल्य प्रदान करनेवाला कहलाता है। और जीवन का सबसे बड़ा मूल्य क्या है? यह है भगवद्धाम वापस जाना, जैसाकि भगवद्गीता (८.१५) में इंगित हुआ है। मनुष्य के स्वार्थ का लक्ष्य भगवद्धाम वापस जाना होना चाहिए। गधा अपना हित नहीं पहचानता। वह दूसरों के लिए कठिन श्रम करता है। जो व्यक्ति मानव जीवन में, अपने निजी हित को भूलकर केवल दूसरों के लिए ही कार्य करता है, वह गधे के समान है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है—
अशीतिं चतुरश्चैव लक्षांस्ताञ्जीवजातिषु।
भ्रमद्भि: पुरुषै: प्राप्यं मानुष्यं जन्म-पर्ययात् ॥
तदप्यभलतां जात: तेषां आत्माभिमानिनाम्।
वराकाणाम् अनाश्रित्य गोविन्दचरणद्वयम् ॥
मानव जीवन इतना महत्त्वपूर्ण है कि स्वर्ग-लोक के देवता भी कभी-कभी इस धरा पर मनुष्य-देह की कामना करते हैं, क्योंकि मानव शरीर में ही मनुष्य भगवद्धाम को सरलता से वापस जा सकता है। यदि ऐसा महत्त्वपूर्ण शरीर प्राप्त करके भी कोई गोविन्द, श्रीकृष्ण के साथ अपने भूले हुए नित्य सम्बन्ध को पुन:स्थापित नहीं कर पाता, तो वह निश्चय ही मूर्ख है, जिसने अपना सारा स्वार्थ भुला दिया है। यह मनुष्य-देह चौरासी लाख योनियों में क्रमश: घूमने के बाद प्राप्त होती है। और बेचारा मनुष्य अपने स्वार्थ को भूलकर राजनीतिक उत्थान तथा आर्थिक विकास के नेता के रूप मेंं अन्यों को ऊपर उठाने के अनेक भ्रामक कार्यों में संलग्न रहता है। राजनीतिक उत्थान या आर्थिक विकास के लिए प्रयास करने में कोई हानि नहीं है, किन्तु मनुष्य को जीवन के असली उद्देश्य को भूलना नहीं चाहिए। ऐसे सारे परोपकारी कार्यों को भगवद्धाम वापस जाने के साथ जोड़ देना चाहिए। जो मनुष्य यह नहीं जानता, वह उस गधे के तुल्य है, जो दुसरों या अपने कल्याण की परवाह न करके अन्यों के लिए ही कार्य करता है।