बिले बतोरुक्रमविक्रमान् ये
न शृण्वत: कर्णपुटे नरस्य ।
जिह्वासती दार्दुरिकेव सूत
न चोपगायत्युरुगायगाथा: ॥ २० ॥
शब्दार्थ
बिले—साँपों के बिल; बत—सदृश; उरुक्रम—अद्भुत कार्य करनेवाले भगवान्; विक्रमान्—शौर्य; ये—जो सब; न—कभी नहीं; शृण्वत:—सुनते हैं; कर्ण-पुटे—कर्ण-छिद्रों में; नरस्य—मनुष्य के; जिह्वा—जीभ; असती—व्यर्थ; दार्दुरिका—मेंढकों के; इव—सदृश; सूत—हे सूत गोस्वामी; न—कभी नहीं; च—भी; उपगायति—तेजी से उच्चारण करती है; उरुगाय—गाने योग्य; गाथा:—गीत ।.
अनुवाद
जिसने भगवान् के शौर्य तथा अद्भुत कार्यों की कथाएँ नहीं सुनी हैं तथा जिसने भगवान् के विषय में गीतों को गाया या उच्चस्वर से उच्चारण नहीं किया है, उसके श्रवण-रंध्र मानो साँप के बिल हैं और जीभ मानो मेंढक की जीभ है।
तात्पर्य
भगवान् की भक्ति-मय सेवा शरीर के सभी अंगों या उपागों द्वारा सम्पन्न होती है। यह आत्मा की दिव्य गतिशील शक्ति है। अतएव भक्त भगवान् की सेवा में शत-प्रतिशत लग जाता है। भक्ति कोई तभी कर सकता है, जब उसके शरीर की इन्द्रियाँ भगवान् के सम्बन्ध की दृष्टि से शुद्ध हों और वह अपनी समस्त इन्द्रियों से भगवान् की सेवा कर सकता हो। फलत: जब तक इन्द्रियाँ केवल इन्द्रिय-तृप्ति में लगी रहती हैं, तब तक इन्द्रियों तथा उनके कार्यों को अशुद्ध या भौतिकतावादी ही मानना चाहिए। शुद्ध इन्द्रियाँ इन्द्रिय-तृप्ति में नहीं, अपितु पूर्णत: भगवान् की सेवा में लगी रहती हैं। भगवान् अपनी समस्त इन्द्रियों समेत परमेश्वर हैं और सेवक, जो भगवान् का अंश-स्वरूप है, वह भी उन्हीं इन्द्रियों से युक्त होता है। भगवान् की सेवा इन्द्रियों का नितान्त शुद्ध उपयोग है, जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है। भगवान् ने पूर्ण इन्द्रियों से उपदेश दिया और अर्जुन ने पूर्ण इन्द्रियों से उसे ग्रहण किया। इस प्रकार यह गुरु तथा शिष्य के मध्य ज्ञेय तथा तार्किक ज्ञान का पूर्ण विनिमय था। आध्यात्मिक ज्ञान कोई विद्युत् आवेश नहीं है, जो गुरु से शिष्य में प्रवेश करता है, जैसाकि कुछ प्रचारक मूर्खतावश दावा करते हैं। प्रत्येक वस्तु ज्ञान तथा तर्क से पूर्ण है और गुरु तथा शिष्य के मध्य विचारों का आदान-प्रदान तभी सम्भव है, जब उसे विनीत भाव तथा सचाई से ग्रहण किया जाय। चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि मनुष्य को चाहिए कि बुद्धि तथा पूर्ण चेतना से युक्त होकर भगवान् चैतन्य की शिक्षाएँ ग्रहण करे, जिससे वह महान् ध्येय को तर्क द्वारा समझ सके।
जीव की विभिन्न इन्द्रियाँ अशुद्ध अवस्था में संसारी कार्यों में संलग्न रहती हैं। यदि उसके कान, भगवद्गीता या श्रीमद्भागवत का श्रवण करते हुए भगवान् की सेवा में नहीं लगे रहते, तो यह निश्चित है कि उसके कानों के छेद कूड़ा-करकट से भर जायेंगे। अतएव भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत के सन्देशों का प्रसार उच्च स्वर से विश्व भर में होना चाहिए। यह उस शुद्ध भक्त का कर्तव्य है, जिसने सही स्रोत से उनके विषय में श्रवण किया है। बहुत से लोग दूसरों से कुछ बोलना चाहते रहते हैं, लेकिन चूँकि उन्हें वैदिक विद्या के विषय में बोलने की शिक्षा नहीं दी गई रहती, अतएव वे व्यर्थ की बातें करते हैं और लोग उन्हें बिना समझे सुनते रहते हैं। सांसारिक खबरों को फैलाने के एक नहीं सैकड़ों- हजारों साधन हैं और संसार भर के लोग उन्हें ग्रहण भी करते रहते हैं। इसी तरह संसार भर के लोगों को भगवान् की दिव्य कथाएँ सुनने के लिए शिक्षा दी जानी चाहिए और भगवान् के भक्त को चाहिए कि उच्चस्वर से बोले, जिससे लोग सुन सकें। मेंढक़ उच्चस्वर से टर्राते हैं, जिनके कारण वे साँपों को आमन्त्रण देते हैं, जो उन्हें खा जाते हैं। मनुष्य को विशेषरूप से वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के लिए जीभ प्रदान की गई है, मेंढकों के समान टर्राने के लिए नहीं। इस श्लोक में प्रयुक्त असती शब्द भी महत्त्वपूर्ण है, जिसका अर्थ है ‘ऐसी स्त्री जो वेश्या बन गई है।’ वेश्या अपने उत्तम स्त्री-गुणों के लिए विख्यात नहीं है। इसी प्रकार जीभ, जो मनुष्य को वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के लिए मिली है, वेश्या मानी जायेगी यदि उसे किसी सांसारिक प्रलाप के लिए प्रयुक्त किया जाये।
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