श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 3: शुद्ध भक्ति-मय सेवा : हृदय-परिवर्तन  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  2.3.22 
बर्हायिते ते नयने नराणां
लिङ्गानि विष्णोर्न निरीक्षतो ये ।
पादौ नृणां तौ द्रुमजन्मभाजौ
क्षेत्राणि नानुव्रजतो हरेर्यौ ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
बर्हायिते—मोर पंखों की भाँति; ते—वे; नयने—आँखें; नराणाम्—मनुष्यों के; लिङ्गानि—स्वरूप; विष्णो:—भगवान् के; न— नहीं; निरीक्षत:—देखते हैं; ये—ऐसे सब; पादौ—पाँव; नृणाम्—मनुष्यों के; तौ—वे; द्रुम-जन्म—वृक्ष से उत्पन्न; भाजौ— उसके सदृश; क्षेत्राणि—पवित्र स्थल; न—नहीं; अनुव्रजत:—जाते हैं; हरे:—भगवान् के; यौ—जो ।.
 
अनुवाद
 
 जो आँखें भगवान् विष्णु की प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियों (उनके रूप, नाम, गुण आदि) को नहीं देखतीं, वे मोर पंख में अंकित आँखों के तुल्य हैं और जो पाँव तीर्थ-स्थानों की यात्रा नहीं करते (जहाँ भगवान् का स्मरण किया जाता है) वे वृक्ष के तनों जैसे माने जाते हैं।
 
तात्पर्य
 विशेष रूप से गृहस्थ भक्तों के लिए अर्चाविग्रह की पूजा की जोरदार संस्तुति की गई है। जहाँ तक सम्भव हो, हर गृहस्थ को, गुरु के आदेशानुसार, विष्णु के श्रीविग्रह की यथा राधाकृष्ण, लक्ष्मीनारायण या सीताराम जैसे स्वरूपों की या नृसिंह, वराह, गौर-निताई, मत्स्य, कूर्म, शालग्राम शिला, या भगवान् के किसी अन्य रूप तथा त्रिविक्रम, केशव, अच्युत, वासुदेव, नारायण तथा दामोदर जैसे विष्णु के अन्य रूप जिनकी संस्तुति वैष्णव तन्त्रों या पुराणों में की गई है, इनकी स्थापना करनी चाहिए और पूरे परिवार को अर्चन विधि के नियमों का कड़ाई से पालन करते हुए पूजा करनी चाहिए।

परिवार का हर सदस्य, जो बारह वर्ष से ऊपर की आयु का हो, प्रामाणिक गुरु से दीक्षा ले और घर के सारे सदस्य भोर से लेकर रात्रि तक मंगल आरात्रिका, निरञ्जन, अर्चन, पूजा, कीर्तन, शृंगार, भोग- वैकाली,सन्ध्या आरात्रिका पाठ, भोग (रात्रि का), शयन आरात्रिका इत्यादि करके भगवान् की सेवा में लगा रहे। प्रामाणिक गुरु के निर्देशन में इस तरह अर्चाविग्रह की पूजा में संलग्न रहने से गृहस्थों को अपना जीवन विमल बनाने तथा आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नति करने में सहायता मिलेगी। किसी नौसिखिये भक्त के लिए साधारण पुस्तकीय ज्ञान पर्याप्त नहीं है। किताबी ज्ञान सैद्धान्तिक होता है, जबकि अर्चन-विधि व्यावहारिक है। आध्यात्मिक ज्ञान का विकास सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक ज्ञान के मेल से किया जाना चाहिए। इससे आध्यात्मिक सिद्धि निश्चित है। नवदीक्षित भक्त के लिए भक्ति का प्रशिक्षण कुशल गुरु पर निर्भर करता है, क्योंकि वह जानता रहता है कि भगवद्धाम जाने के मार्ग में क्रमिक प्रगति करने के लिए शिष्य को किस तरह ले जाया जाय। किसी को अपने परिवार का खर्च चलाने के लिए छद्म गुरु नहीं बनना चाहिए, अपितु उसे कुशल गुरु होना चाहिए, जिससे वह शिष्य को आसन्न मृत्यु के चंगुल से उबार सके। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने गुरु के प्रामाणिक गुणों का बखान किया है और उन श्लोकों में से एक इस प्रकार है—

श्रीविग्रहाराधननित्यनानाशृंगारतन्मन्दिरमार्जनादौ।

युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि वन्दे गुरो: श्रीचरणारविन्दम् ॥

श्रीविग्रह, अर्चा अथवा भगवान् का उपयुक्त पूजनीय स्वरूप है और शिष्य को चाहिए कि वह शृंगार द्वारा अर्थात् समुचित अलंकरण तथा वस्त्रों द्वारा एवं मन्दिर-मार्जन अर्थात् मन्दिर की सफाई द्वारा श्रीविग्रह की पूजा करे। गुरु, नवदीक्षित भक्त को अत्यन्त अनुग्रहपूर्वक स्वयं ही ये सारी बातें सिखाता है और धीरे-धीरे भगवान् के दिव्य नाम, रूप, गुण आदि की अनुभूति प्राप्त करने में सहायता करता है।

भगवान् को वस्त्र पहनाने तथा मन्दिर को सजाने जैसी सेवा में ध्यान लगाने के साथ ही संगीतमय कीर्तन एवं शास्त्रों से आध्यात्मिक उपदेशों के द्वारा ही सामान्य व्यक्ति नारकीय सिनेमा के आकर्षण तथा सर्वत्र रेडियो द्वारा प्रसारित होनेवाले भद्दे कामुक गीतों से बच सकता है। यदि कोई घर में मन्दिर नहीं बना सकता है, तो उसे किसी अन्य के मन्दिर में जाना चाहिए, जहाँ उपर्युक्त सारे कार्य नियमित रूप से सम्पन्न होते हों। भक्त के मन्दिर में जाने तथा भगवान् के अलंकृत रूप का दर्शन करने से संसारी मन में आध्यात्मिक प्रेरणा उत्पन्न होगी। मनुष्यों को चाहिए कि वे वृन्दावन जैसे तीर्थ-स्थानों में जायें, जहाँ ऐसे मन्दिर तथा श्रीविग्रह-पूजन की व्यवस्था रहती है। प्राचीनकाल में सारे धनी व्यक्ति, जैसा राजा तथा धनी व्यापारी, ऐसे मन्दिरों का निर्माण षड्गोस्वामियों जैसे कुशल भगवद्भक्तों के निर्देशानुसार कराते थे और जनसामान्य का कर्तव्य है कि इन मन्दिरों का तथा तीर्थस्थलों में सम्पन्न होनेवाले उत्सवों का लाभ महान् भक्तों के पद-चिह्नों का अनुसरण करते हुए (अनुव्रज) उठायें। मनुष्यों को चाहिए कि इन पवित्र तीर्थस्थलों तथा मन्दिरों की यात्रा सैर-सपाटे करने की भावना से न करें, अपितु उन्हें भगवान् की दिव्य लीलाओं से अमर हुआ मानकर तथा ईश-विज्ञान जानने वाले व्यक्ति के मार्गदर्शन में करें। यह अनुव्रज कहलाता है। अनु का अर्थ है पीछे-पीछे जाना। अतएव उत्तम होगा कि मन्दिरों तथा तीर्थस्थानों को देखने जाने में भी गुरु के आदेश का पालन किया जाय। जो इस विधि से यात्रा नहीं करता, वह उस जड़ वृक्ष के सदृश है, जिसे भगवान् ने जड़ बने रहने का शाप दिया है। मनुष्य की चल-फिर सकने की प्रवृत्ति का दुरुपयोग दृश्य देखने या पर्यटन करने के लिए स्थानों की यात्रा करने में होता है। ऐसी यात्रा की प्रवृत्ति का सदुपयोग यही है कि महान् आचार्यों द्वारा संस्थापित तीर्थस्थलों में जाया जाय और उन धन कमानेवाले व्यक्तियों के नास्तिक प्रचार से गुमराह न हुआ जाय, जिन्हें आध्यात्मिक विषयों का कोई ज्ञान नहीं है।

 
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