श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 3: शुद्ध भक्ति-मय सेवा : हृदय-परिवर्तन  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  2.3.23 
जीवञ्छवो भागवताङ्‌घ्रिरेणुं
न जातु मर्त्योऽभिलभेत यस्तु ।
श्रीविष्णुपद्या मनुजस्तुलस्या:
श्वसञ्छवो यस्तु न वेद गन्धम् ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
जीवन्—जीवित रहते हुए; शव:—मृत शरीर; भागवत-अङ्घ्रि-रेणुम्—शुद्ध-भक्त के चरणों की धूलि; न—कभी नहीं; जातु—किसी भी समय; मर्त्य:—मरणशील, मर्त्य; अभिलभेत—विशेष रूप से प्राप्त; य:—जो व्यक्ति; तु—लेकिन; श्री— ऐश्वर्य से; विष्णु-पद्या:—विष्णु के चरणकमलों का; मनु-ज:—मनु की संतान (मनुष्य); तुलस्या:—तुलसीदल; श्वसन्—श्वास लेते हुए; शव:—फिर भी शव; य:—जो; तु—लेकिन; न वेद—अनुभव नहीं किया; गन्धम्—सुगन्धि को ।.
 
अनुवाद
 
 जिस व्यक्ति ने कभी भी भगवान् के शुद्धभक्त की चरण-धूलि अपने मस्तक पर धारण नहीं की, वह निश्चित रूप से शव है तथा जिस व्यक्ति ने भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदलों की सुगन्धि का अनुभव नहीं किया, वह श्वास लेते हुए भी मृत शरीर के तुल्य है।
 
तात्पर्य
 श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार, श्वास लेता शव प्रेत होता है। जब मनुष्य मरता है, तो वह मृत कहलाता है, किन्तु जब वह पुन: हमारी वर्तमान दृष्टि से अदृश्य, सूक्ष्म रूप में प्रकट होता है और कार्य करता है, तो ऐसा मृत शरीर प्रेत कहलाता है। प्रेत सदैव ही बुरे तत्त्व होते हैं, जो दूसरों के लिए भयानक स्थिति उत्पन्न करते हैं। इसी तरह प्रेत-सदृश अभक्त, जिन्हें न तो शुद्ध भक्तों के लिए, न मन्दिरों के विष्णु श्रीविग्रहों के लिए कोई सम्मान रहता है, वे भक्तों के लिए सदैव भयानक स्थिति उत्पन्न करते रहते हैं। भगवान् ऐसे अशुद्ध प्रेतों की कोई भेंट स्वीकार नहीं करते। एक आम कहावत है कि प्रेयसी के प्रति प्रेमभाव दिखाने के पूर्व मनुष्य को प्रेयसी के कुत्ते को प्यार करना होता है। शुद्धभक्ति की अवस्था भगवान् के शुद्ध भक्त की निष्ठापूर्वक सेवा द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। अतएव भगवान् की भक्ति की पहली शर्त है शुद्ध भक्त का दास होना और इस शर्त की पूर्ति इस कथन से होती है “उस शुद्ध भक्त के चरणों की धूलि को धारण करना, जिसने दूसरे शुद्ध भक्त की सेवा की है।” यही शुद्ध शिष्य-परम्परा या भक्ति परम्परा है।

जब महाराज रहूगण ने परम सन्त जड़भरत से पूछा कि उन्होंने परमहंस की मुक्तावस्था कैसे प्राप्त की, तो उन्होंने निम्नानुसार उत्तर दिया (भागवत ५.१२.१२)।

रहूगणैतत्तपसा न याति न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा।

नच्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्यैर्विना महत्पादरजोऽभिषेकम् ॥

“हे राजा रहूगण! महान् भक्तों के चरणकमलों की धूलि से सम्पूर्ण शरीर को पवित्र किए बिना भक्ति की पूर्णावस्था या जीवन की परमहंस अवस्था की प्रतीति नहीं हो सकती। यह तपस्या वैदिक पूजनविधि, संन्यास ग्रहण, गृहस्थ के कर्तव्य पालन, वैदिक स्तोत्रों के उच्चारण या गर्म धूप में अथवा जल के भीतर या तपती अग्नि के समक्ष तपस्या करने से कभी भी प्राप्त नहीं की जा सकती।”

दूसरे शब्दों में, भगवान् श्रीकृष्ण अपने शुद्ध मुक्त भक्तों की सम्पत्ति हैं, फलत: कृष्ण को केवल भक्त ही दूसरे भक्त को सौंप सकता हैं; कृष्ण कभी भी प्रत्यक्ष विधि से प्राप्त नहीं होते। अतएव भगवान् चैतन्य ने स्वयं को गोपीभर्तु: पदकमलयोर्दासदासानुदास: “अर्थात् वृन्दावन में गोपबालाओं का पालन करनेवाले भगवान् के दासों का अत्यन्त आज्ञाकारी दास” कहा। शुद्ध भक्त कभी भी भगवान् तक सीधे नहीं पहुँचता, अपितु वह भगवान् के दासों के दास को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है और इस तरह भगवान् प्रसन्न होते हैं। तभी भक्त भगवान् के चरणकमलों पर चढ़े तुलसीदलों का आस्वाद कर सकता है। ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि वैदिक साहित्य का महान् पंडित बनने से भगवान् नहीं मिलते, अपितु वे अपने शुद्ध भक्त के माध्यम से सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। वृन्दावन के सारे लोग भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति, श्रीमती राधा रानी, से कृपा की प्रार्थना करते हैं, जो परम पूर्ण की सुकुमार हृदय अर्धाङ्गिनी हैं, जो संसार की स्त्रीरूपा प्रकृति की सिद्धावस्था के अनुरूप हैं। अतएव निष्ठावान भक्तों को राधारानी की कृपा सरलता से प्राप्त हो जाती है और एक बार जब वे भगवान् कृष्ण से ऐसे भक्त का अनुमोदन करती हैं, तो भगवान् उसे तुरन्त ही अपना संगी बना लेते हैं। अतएव निष्कर्ष यही निकला कि मनुष्य को सीधे भगवान् की कृपा की खोज न करके, भक्त की कृपा प्राप्त करनी चाहिए। ऐसा करने से (भक्त की कृपा से) भगवान् की सेवा करने का स्वाभाविक आकर्षण पुन: जागृत हो उठेगा।

 
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