हमें ध्यान देना होगा कि द्वितीय स्कन्ध के प्रथम तीन अध्यायों में किस तरह भक्ति के क्रमिक विकास को प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रथम अध्याय में श्रवण तथा कीर्तन द्वारा ईश-चेतना के लिए भक्ति के प्रथम चरण पर बल दिया गया है और नवदीक्षितों के लिए भगवान् के विश्व रूप में उनकी स्थूल अवधारणा की संस्तुति की गई है। ईश्वर की ऐसी स्थूल अवधारणा से, जो उनकी शक्ति की भौतिक अभिव्यक्ति के माध्यम से प्राप्त होती है, मनुष्य का मन तथा इन्द्रियाँ आध्यात्मिक बनती हैं और धीरे-धीरे मन, उन भगवान् विष्णु पर एकाग्र होता है, जो प्रत्येक के हृदय में सर्वत्र और भौतिक ब्रह्माण्ड के प्रत्येक परमाणु में परमात्मा रुप में स्थित हैं। इसीलिए पञ्च उपासना पद्धति भी कार्य रूप में अपवाई जाती है, जिसमें पाँच मानसिक प्रवृत्तियों की संस्तुति की जाती है। ये हैं क्रमिक विकास, श्रेष्ठ की पूजा जो अग्नि, विद्युत, सूर्य, जीव, शिवजी तथा अन्तत: निराकार परमात्मा जो भगवान् विष्णु की आंशिक अभिव्यक्ति के रूप में हो सकती है। इन सबका सुन्दर वर्णन द्वितीय अध्याय में हुआ है। किन्तु तृतीय अध्याय में विष्णु पूजा की स्थिति अर्थात् शुद्ध भक्ति प्राप्त करने के बाद विष्णु पूजा की परिपक्क अवस्था का वर्णन है, जिसमें हृदय परिवर्तन की बात कही गई है। आध्यात्मिक संस्कृति की सम्पूर्ण प्रक्रिया का उद्देश्य जीव के हृदय में परिवर्तन लाना है, जिससे वह परमेश्वर के प्रति नित्य अपने आपको अधीन दास के रूप में माने, क्योंकि यही उसकी शाश्वत स्वाभाविक स्थिति है। इस तरह भक्ति की प्रगति के साथ-साथ हृदय-परिवर्तन का प्रदर्शन, संसार पर प्रभुता दिखाने की मिथ्या भावना से उत्पन्न भौतिक भोग की भावना की क्रमिक विरक्ति तथा भगवान् की प्रेमाभक्ति करने की प्रवृत्ति में वृद्धि के द्वारा होता है। यहाँ पर विधि भक्ति अर्थात् शरीर के अंगों द्वारा (आँख, नाक, कान, हाथ, पाँव इत्यादि जिनका वर्णन पहले हो चुका है) की गई नियमित भक्ति पर शरीर के अंगों की समस्त गतिविधियों को प्रेरणा प्रदान करनेवाले मन के आधार पर बल दिया जा रहा है। ऐसी अपेक्षा की जाती है कि नियमित भक्ति-मय सेवा करने से हृदय में परिवर्तन अवश्य दिखना चाहिए। यदि परिवर्तन नहीं आता, तो समझना चाहिए कि हृदय फौलाद का बना है, क्योंकि भगवान् के पवित्र नाम के उच्चारण किये जाने पर भी यह नहीं पिघलता। हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि भक्तिमय कार्यों को सम्पन्न करनें में श्रवण तथा कीर्तन दो मूलभूत सिद्धान्त हैं और यदि इन्हें ठीक से सम्पन्न किया जाय, तो इससे हर्ष उत्पन्न होगा जो आँखों में आँसू तथा शरीर में रोमांच द्वारा लक्षित होगा। ये स्वाभाविक परिणाम हैं और भाव दशा के प्रारम्भिक लक्षण हैं, जो प्रेम या भगवत्प्रेम की पूर्णावस्था प्राप्त होने के पूर्व प्रकट होते हैं।
यदि भगवान् के पवित्र नाम के निरन्तर श्रवण तथा कीर्तन से भी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो यह समझना चाहिए कि यह केवल अपराध के कारण है। यही सन्दर्भ का अभिमत है। भगवान् के पवित्र नाम का उच्चारण प्रारम्भ करते समय, यदि भक्त पवित्र नाम के चरणों पर दस प्रकार के अपराधों से बचने के प्रति सावधान नहीं रहता, तो यह निश्चित मानें कि विरह की भावना आँखों में आँसू तथा शरीर में रोमांच के रूप में नहीं प्रकट होगी।
भाव दशा का प्राकट्य आठ दिव्य लक्षणों से होता है। ये हैं—निष्क्रियता, प्रस्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कम्पन, शरीर का पीला पडऩा, अश्रुपात तथा अन्तत: समाधि। श्रील रूप गोस्वामी द्वारा विरचित भक्ति रसामृत सिंधु नामक कृति के सार रूप भक्तिरसामृत सिंधु में इन लक्षणों का तथा स्थायी एवं संचारी भावों का विशद वर्णन किया गया है।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कतिपय दुराचारी नवदीक्षितों द्वारा उपर्युक्त लक्षणों को सस्ती ख्याति के लिए अनुकरण करने के प्रसंग में इन सारे भावों की आलोचनात्मक व्याख्या की है। न केवल विश्वनाथ चक्रवर्ती ने, अपितु श्रील रूप गोस्वामी ने भी इनका आलोचनात्मक विवरण दिया है। कभी-कभी उपर्युक्त भाव के आठों लक्षणों का अनुकरण कतिपय संसारी भक्तों (प्राकृत सहजिया) द्वारा किया जाता है, किन्तु ऐसे छद्म लक्षणों का तब तुरन्त ही पता चलता है जब छद्म भक्त अनेक वर्जित कार्यों को करते पाया जाता है। कोई भक्त के चिह्नों से कितना ही अलंकृत क्यों न हो, यदि वह धूम्रपान, मद्यपान या स्त्रियों के साथ अवैध मैथुन करता है, तो उसमें उपर्युक्त भाव दशाएँ नहीं हो सकतीं। किन्तु ऐसा देखा गया है कि कभी-कभी जानबूझ कर इन लक्षणों का अनुकरण किया जाता है, इसीलिए श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ने ऐसे अनुकरणकर्ता को पाषाण हृदय कहा है। कभी-कभी ऐसे लोग ऐसे दिव्य लक्षणों की झलक से प्रभावित भी होते हैं, किन्तु यदि इतने पर भी वे वर्जित आदतें नहीं छोड़ते, तो उनसे दिव्य अनुभूति की आशा नहीं की जानी चाहिए।
जब भगवान् चैतन्य गोदावरी के तट पर कावौर के श्री रामानन्द राय से मिले थे, तो उनमें ये समस्त लक्षण उत्पन्न हुए थे, किन्तु वहाँ पर राय के अनुयायी कतिपय अभक्त ब्राह्मणों के होने से भगवान् चैतन्य ने इन लक्षणों को दबा लिया था। अतएव परिस्थितिवश कभी-कभी, ये लक्षण महाभागवत के शरीर में भी प्रकट नहीं हो पाते। अतएव असली स्थायी भाव भौतिक इच्छाओं के अन्त होने (क्षान्ति), प्रत्येक क्षण को प्रेमाभक्ति में लगाने (अव्यार्थ-कालत्वम्), निरन्तर भगवान् की महिमा के गायन के प्रति उत्सुकता (नाम गाने सदा रुचि), भगवान् के धाम में रहने के लिए आकर्षण (प्रीतिस्तद्वसति स्थले), भौतिक सुख से पूर्ण वैराग्य (विरक्ति), निरभिमानता (मानशून्यता) द्वारा प्रकट होते हैं। जिसमें ये समस्त दिव्य गुण उत्पन्न होते हैं उसे ही असली भाव दशा प्राप्त होती है, पाषाण हृदय अनुकरणकर्ता या संसारी भक्त को नहीं।
सम्पूर्ण प्रक्रिया को संक्षेप में इस प्रकार बताया जा सकता है—पूर्ण रूप से निरपराध होकर भगवान् के पवित्र नाम का जप करनेवाला तथा प्रत्येक व्यक्ति के प्रति मैत्री भाव रखनेवाला प्रगत भक्त ही वास्तव में भगवान् के यशोगान का दिव्य आस्वादन कर सकता है। ऐसी अनुभूति का परिणाम समस्त भौतिक इच्छाओं की समाप्ति द्वारा परिलक्षित होता है, जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है। नवदीक्षित भक्त, भक्ति की निम्नतर अवस्था में रहने के कारण, ईर्ष्यालु होते हैं और अपने आचार्यों का अनुगमन न करके स्वयं भक्ति के विधि-विधानों का आविष्कार करते हैं। फलस्वरूप, वे कितना ही भगवन्नाम जप का प्रदर्शन क्यों न करें, वे पवित्र नाम का दिव्य स्वाद प्राप्त नहीं कर पाते। अतएव आँखों में आँसू आना, काँपना, पसीजना या मूर्छित होना—इन सबकी भर्त्सना की जाती है। हाँ, वे भगवान् के शुद्ध भक्त की संगति करके, अपनी बुरी आदतों को सुधार सकते हैं, अन्यथा वे पाषाण-हृदय बने रहेंगे और किसी भी उपचार के योग्य नहीं हो सकेंगे। भगवद्धाम जाने के मार्ग की पूरी प्रगति, स्वरुप सिद्ध भक्त के द्वारा निर्देशत शास्त्रों के आदेशों पर निर्भर करती हैं।