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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 3: शुद्ध भक्ति-मय सेवा : हृदय-परिवर्तन  »  श्लोक 9
 
 
श्लोक  2.3.9 
राज्यकामो मनून् देवान् निऋर्तिं त्वभिचरन् यजेत् ।
कामकामो यजेत् सोममकाम: पुरुषं परम् ॥ ९ ॥
 
शब्दार्थ
राज्य-काम:—राज्य की इच्छा करनेवाला; मनून्—ईश्वर के अर्धअवतार मनुओं को; देवान्—देवताओं को; निर्ऋतिम्—असुरों को; तु—लेकिन; अभिचरन्—शत्रु पर विजय पाने की इच्छा रखते हुए; यजेत्—पूजे; काम-काम:—इन्द्रिय तृप्ति का इच्छुक; यजेत्—पूजा करे; सोमम्—चन्द्र देवता की; अकाम:—निष्काम; पुरुषम्—परमेश्वर की; परम्—परम ।.
 
अनुवाद
 
 जो व्यक्ति राज्य-सत्ता पाने का इच्छुक हो, उसे मनुओं की पूजा करनी चाहिए। जो व्यक्ति शत्रुओं पर विजय पाने का इच्छुक हो, उसे असुरों की और जो इन्द्रियतृप्ति चाहता हो, उसे चन्द्रमा की पूजा करनी चाहिए। किन्तु जो किसी प्रकार के भोग की इच्छा नहीं करता, उसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करनी चाहिए।
 
तात्पर्य
 मुक्तात्माओं के लिए ऊपर गिनाये गये सारे भोग पूरी तरह से अर्थहीन हैं। जो लोग बहिरंगा शक्ति के गुणों द्वारा बद्ध हैं, वे ही विभिन्न प्रकार के भौतिक भोगों द्वारा मोहित होते रहते हैं। दूसरे शब्दों में, योगी की भौतिक भोग को पूरा करने की कोई इच्छा नहीं होती जबकि भौतिकतावादी समस्त प्रकार की इच्छाओं से युक्त रहता है। भगवान् ने घोषित किया है कि जो भौतिकतावादी, भौतिक भोग चाहते हैं और उनके लिए विभिन्न देवताओं से कृपा-याचना करते हैं, जैसाकि ऊपर कहा गया है, वे अपने विवेक में नहीं रहते हैं और मूर्ख सिद्ध होते हैं। अतएव मनुष्य को कभी किसी तरह के भौतिक भोग की इच्छा नहीं करनी चाहिए। उसे तो पूर्ण-पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करने के लिए सजक रहना चाहिए। ऐसे विमूढ़ व्यक्तियों के नेता उनसे बढक़र विमूढ़ होते हैं, क्योंकि वे खुल कर यह प्रचार करते हैं कि मनुष्य किसी भी देवता की पूजा करके एक सा फल प्राप्त कर सकता है। ऐसा प्रचार न केवल भगवद्गीता या श्रीमद्भागवत की शिक्षाओं के विपरीत है, अपितु मूर्खतापूर्ण भी है। यह उसी तरह है, जैसे किसी भी यात्री-टिकट के बल पर किसी भी गन्तव्य तक पहुँचने का अधिकार जताना। यदि कोई बड़ौदा का टिकट खरीदे तो वह उससे बम्बई या दिल्ली नहीं जा सकता। यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि विभिन्न इच्छाओं से युक्त व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न प्रकार से पूजा करनी चाहिए, लेकिन जिसे कोई भोग-वासना नहीं है, उसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा करनी चाहिए। यह पूजा प्रक्रिया भक्ति-मय सेवा कहलाती है। शुद्ध भक्ति का अर्थ होता है कि किसी भी प्रकार की भौतिक इच्छा के बिना, जिसमें सकाम कर्म तथा ज्ञान की इच्छा भी सम्मिलित है, भगवान् की सेवा करना। भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य चाहे तो परमेश्वर की पूजा कर सकता है, किन्तु ऐसी पूजा से प्राप्त होनेवाला फल भिन्न होता है, जिसकी व्याख्या अगले श्लोक में की जायेगी। सामान्यतया भगवान् किसी की इन्द्रियभोग की कामनाओं को पूरा नहीं करते, किन्तु वे अपने पूजकों को ऐसा वरदान देते हैं जिससे अन्त में वे भौतिक भोग की इच्छा न करने के बिन्दु पर पहुँच जाते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य को भौतिक भोग की इच्छाएँ कम कर देनी चाहिए और इसके लिए उसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की पूजा करनी चाहिए जिन्हें यहाँ परम् या किसी भी भौतिक वस्तु के परे कहा गया है। श्रीपाद शंकराचार्य ने भी कहा है—नारायण: परोऽव्यक्तात्—परमेश्वर भौतिक चक्र से परे है।
 
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