ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि परम सत्य गोविन्द यद्यपि अद्वितीय हैं, तथापि वे अपने को अच्युत भाव से असंख्य रूपों में प्रकट करते हैं, जो एक दूसरे से अभिन्न होते हैं और यद्यपि वे आदि पुरुष हैं, तो भी वे सदैव युवा प्रतीत होते हैं और स्थायीतरुण शक्ति से युक्त रहते हैं। वेदों का अध्यात्म-ज्ञान जान लेने मात्र से ही उन्हें नहीं जाना जा सकता, किन्तु उनके शुद्ध भक्त उन्हें सरलता से अनुभव कर पाते हैं। भगवान् के विभिन्न रूपों के सारे विस्तार जैसे श्रीकृष्ण से बलदेव, बलदेव से संकर्षण, संकर्षण से वासुदेव, वासुदेव से अनिरुद्ध, अनिरुद्ध से प्रद्युम्न तथा प्रद्युम्न से पुन: द्वितीय संकर्षण और उनसे नारायण पुरुषावतार तथा अन्य असंख्य रूप, जो नदी की असंख्य तरंगों की भाँति निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं, वे सब एक हैं। वे समान शक्तिवाले दीपकों की भाँति हैं, जो एक दूसरे को प्रदीप्त करते हैं। यही भगवान् की दिव्य शक्ति है। वेदों का कथन है कि वे इतने पूर्ण हैं कि यद्यपि सम्पूर्ण सत्ता (जगत) उनसे उद्भूत होती है, फिर भी वे ज्यों के त्यों पूर्ण बने रहते हैं (पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते)। अतएव ज्ञानियों के द्वारा बनाई गई भगवान् की भौतिक अवधारणा की कोई वैधता नहीं है। इस तरह वे (भगवान्) संसारी विद्वान् के लिए सदैव रहस्य बने रहते हैं, भले ही वह वैदिक साहित्य में कितना ही पंडित क्यों न हो (वेदेषु दुर्लभम् अदुर्लभम् आत्मभक्तौ)। अतएव भगवान् संसारी विद्वान पंडितों, दार्शनिकों या विज्ञानियों की धारणाओं से सर्वथा परे हैं। वे शुद्ध भक्त द्वारा सहज गम्य हैं, क्योंकि भगवद्गीता (१८.५४) में भगवान् घोषित करते हैं कि जब कोई ज्ञान की अवस्था को पार करके भगवान् की भक्ति में लीन हो जाता है, तभी वह भगवान् के वास्तविक स्वभाव को समझ सकता है। जब तक कोई भगवान् की भक्ति में प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसे भगवान् या उनके पवित्र नाम, रूप, लक्षण, लीलाओं आदि के विषय में कोई स्पष्ट धारणा नहीं बन सकती। भगवद्गीता का यह कथन कि सर्वप्रथम मनुष्य अन्य सारी व्यस्तताओं से मुक्त होकर भगवान् की शरण में जाये, यह बताता है कि मनुष्य को भगवान् का शुद्ध, मुक्त भक्त होना चाहिए। तभी वह भक्ति के बल पर उन्हें जान सकता है।
पिछले श्लोक में महाराज परीक्षित ने स्वीकार किया कि भगवान् बड़े से बड़े विद्वानों के लिए भी अचिन्त्य हैं। तो वे शुकदेव गोस्वामी से अपने उस अपर्याप्त ज्ञान को स्पष्ट करने का अनुरोध क्यों करते हैं? इसका कारण स्पष्ट है। शुकदेव गोस्वामी न केवल वैदिक साहित्य में प्रकाण्ड विद्वान् थे, अपितु वे महान् स्वरूपसिद्ध पुरुष और भगवान् के शक्तिसम्पन्न भक्त भी थे। भगवत्कृपा से भगवान् का शक्तिशाली भक्त भगवान् से भी बढक़र होता है। भगवान् श्रीरामचन्द्र हिन्द महासागर पर सेतु बनाकर लंका द्वीप पहुँचने का प्रयास कर रहे थे, किन्तु उनके अनन्य भक्त श्री हनुमानजी छलांग मार कर उस सागर को पार कर गये। भगवान् अपने भक्तों के ऊपर इतने दयालु रहते हैं कि वे अपने प्रिय भक्तों को अपने से बढक़र प्रस्तुत करते हैं। भगवान् ने दुर्वासा मुनि की रक्षा करने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी थी, यद्यपि दुर्वासा मुनि इतने शक्तिशाली थे कि भौतिक दशाओं में ही भगवान् के पास सीधे पहुँच गये। लेकिन दुर्वासा मुनि की रक्षा की तो एक भगवद्भक्त अर्थात् महाराज अम्बरीष ने। अतएव भगवद्भक्त न केवल भगवान् से अधिक शक्तिशाली होता है, अपितु भक्त की पूजा भी भगवान् की प्रत्यक्ष पूजा से अधिक प्रभावशाली मानी जाती है (मद्भक्तपूजाभ्यधिका)।
अतएव निष्कर्ष यह निकला है कि गम्भीर भक्त को सर्वप्रथम ऐसे गुरु के समीप जाना चाहिए जो न केवल वैदिक साहित्य में निष्णात हो, अपितु महान् भक्त भी हो, जिसे भगवान् की एवं उनकी विभिन्न शक्तियों की वास्तविक अनुभूति हो। ऐसे भक्त-गुरु की सहायता के बिना कोई व्यक्ति भगवान् के अध्यात्म-विज्ञान में प्रगति नहीं कर सकता। शुकदेव गोस्वामी जैसा प्रामाणिक गुरु न केवल भगवान् की अन्तरंगा शक्तियों के विषय में बताता है, अपितु वह यह भी बताता है कि वे किस तरह अपनी बहिरंगा शक्ति के साथ रहते हैं।
अन्तंरगा शक्ति में भगवान् की लीलाएँ उनके वृन्दावन के कार्यकलापों के रूप में प्रदर्शित होती हैं, किन्तु उनकी बहिरंगा शक्ति के कार्यकलाप उनके कारणार्णवशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु के रूपों में प्रकट होते हैं। श्रील विश्वनाथचक्रवर्ती वैष्णवों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि उन्हें केवल भगवान् के कार्यकलापों (यथा रासलीला) के सुनने में ही रुचि नहीं लेनी चाहिए, अपितु उनके पुरुषावतारों के रूप में की गई सृष्टि तत्त्व लीलाओं में भी रुचि लेनी चाहिए, जैसाकि महाराज परीक्षित ने आदर्श शिष्य के रूप में आदर्श गुरु शुकदेव गोस्वामी से ली।