मैं पुन: पूर्ण जगत-रुप तथा अध्यात्म-रूप उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ, जो पुण्यात्मा भक्तों को समस्त संकटों से मुक्ति दिलानेवाले तथा अभक्त असुरों की नास्तिक मनोवृत्ति की वृद्धि को विनष्ट करनेवाले हैं। वे सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि-प्राप्त योगियों को उनके विशिष्ट पद प्रदान करने वाले हैं।
तात्पर्य
भगवान् श्रीकृष्ण समस्त जगत के, भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही के, पूर्ण रूप हैं। अखिल का अर्थ है पूर्ण अथवा जो खिल या निकृष्ट नहीं है। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, प्रकृति दो तरह की है—भौतिक प्रकृति तथा आध्यात्मिक प्रकृति, जो भगवान् की बहिरंगा तथा अन्तरंगा शक्तियाँ हैं। भौतिक प्रकृति अपरा या निकृष्ट कहलाती है और आध्यात्मिक प्रकृति परा या दिव्य कहलाती है। अतएव भगवान् का स्वरूप निकृष्ट भौतिक प्रकृति नहीं है। वे तो पूर्ण ब्रह्म हैं। वे मूर्ति हैं अर्थात् दिव्य स्वरूपवाले हैं। अल्पज्ञानी व्यक्ति उनके दिव्य स्वरूप से परिचित न होने के कारण उन्हें निराकार ब्रह्म के रूप में बताते हैं। लेकिन ब्रह्म तो उनके दिव्य शरीर की किरणें मात्र है (यस्य प्रभा)। भक्त-गण उनके दिव्य स्वरूप से परिचित होने के कारण उनकी सेवा करते हैं, अतएव भगवान् भी अपनी अहैतुकी कृपा का प्रतिदान करते हैं और अपने भक्तों को समस्त विपत्तियों से उबारते हैं। वे पवित्रात्मा, जो वेदों के आदेशों का पालन करनेवाले हैं, भगवान् को अत्यन्त प्रिय हैं। अतएव वे उनकी भी रक्षा करते हैं। दुरात्मा तथा अभक्तगण वेदों के नियमों के विरुद्ध रहते हैं, अतएव ऐसे व्यक्तियों के निन्द्य कार्यकलापों की प्रगति में बाधा डाली जाती है। इनमें से कुछ, जिन पर भगवान् की विशेष कृपा होती है, उन्हीं के द्वारा मारे जाते हैं, जैसे रावण, हिरण्यकशिपु तथा कंस। इस प्रकार असुरों को मोक्ष प्राप्त होता है और उनके आसुरी कार्यकलापों को आगे बढऩे से रोक दिया जाता है। चाहे भक्तों पर कृपा-भाव हो या असुरों का वध, भगवान् एक पिता की भाँति, सबों पर दयालु रहते हैं, क्योंकि वे प्रत्येक जीव के पूर्ण स्वामी हैं।
जीव की परमहंस अवस्था अध्यात्म की सर्वोच्च सिद्धावस्था है। श्रीमती कुन्तीदेवी के अनुसार, परमहंस ही भगवान् को वास्तव में जान पाते हैं। जिस तरह अध्यात्म की अनुभूति निर्विशेष ब्रह्म से अन्तर्यामी परमात्मा तथा उससे बढक़र पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में होती है, उसी प्रकार संन्यास के आध्यात्मिक जीवन में भी मनुष्य का पद क्रमश: ऊपर उठता है। संन्यास की क्रमिक अवस्थाएँ हैं कुटीचक, बहूदक, परिव्राजकाचार्य तथा परमहंस। इनका उल्लेख पाण्डवों की माता श्रीमती कुन्तीदेवी ने भगवान् कृष्ण की प्रार्थना के अन्तर्गत किया है (प्रथम स्कन्ध, अध्याय ८)। सामान्यतया परमहंस निर्विशेषवादियों तथा भक्तों दोनों में ही पाये जाते हैं, लेकिन श्रीमद्भागवत के अनुसार (जैसाकि कुन्ती देवी ने स्पष्ट कहा है), केवल परमहंस ही शुद्ध भक्तियोग को समझ पाते हैं। कुन्तीदेवी ने स्पष्ट कहा है कि भगवान् परमहंसों को भक्तियोग प्रदान करने के लिये ही विशेष रूप से अवतरति होते हैं (परित्राणाय साधूनाम्)। इस तरह एक प्रकार से अन्ततोगत्वा परमहंस भगवान् के अनन्य भक्त ही हैं। श्रील जीव गोस्वामी ने प्रत्यक्ष स्वीकार किया है कि परम गति तो भक्तियोग है, जिसके द्वारा मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति स्वीकार करते हैं। जो लोग भक्तियोग के मार्ग को ग्रहण करते हैं, वे ही वास्तविक परमहंस हैं।
चूँकि भगवान् सबों पर अत्यन्त दयालु रहते हैं, अतएव जो निर्विशेषवादी भगवान् की निर्विशेष ब्रह्मज्योति में तदाकार होने के लिए साधन-स्वरूप भक्ति ग्रहण करते हैं, उन्हें भी उनका मनोवांछित लक्ष्य प्राप्त होता है। उन्होंने भगवद्गीता (४.११) में सबों को आश्वस्त किया है—ये यथा मां प्रपद्यन्ते।
श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार, परमहंसों की दो श्रेणियाँ हैं—ब्रह्मानन्दी (निर्विशेषवादी) तथा प्रेमानन्दी (भक्त) और इन दोनों को ही वांछित गति प्राप्त होती है, यद्यपि ब्रह्मानन्दियों की अपेक्षा प्रेमानन्दी अधिक भाग्यवान हैं। लेकिन ये दोनों श्रेणियाँ अध्यात्मवादी हैं और इन्हें अपरा प्रकृति से कुछ भी लेना-देना नहीं रहता, जो जीवन के कष्टों से पूर्ण है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.