श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 4: सृष्टि का प्रक्रम  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  2.4.14 
नमो नमस्तेऽस्त्वृषभाय सात्वतां
विदूरकाष्ठाय मुहु: कुयोगिनाम् ।
निरस्तसाम्यातिशयेन राधसा
स्वधामनि ब्रह्मणि रंस्यते नम: ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
नम: नम: ते—मैं आपको नमस्कार करता हूँ; अस्तु—हैं; ऋषभाय—महान् पार्षद को; सात्वताम्—यदुवंश के सदस्यों को; विदूर-काष्ठाय—संसारी द्वन्द्वों से दूर रहनेवाला; मुहु:—सदैव; कु-योगिनाम्—अभक्तों का; निरस्त—ध्वस्त; साम्य—समान पद; अतिशयेन—महानता से; राधसा—ऐश्वर्य से; स्व-धामनि—अपने धाम में; ब्रह्मणि—वैकुण्ठ लोक में; रंस्यते—भोग करता है; नम:—मैं नमस्कार करता हूँ ।.
 
अनुवाद
 
 मैं उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ जो यदुवंशियों के संगी हैं और अभक्तों के लिए सदैव समस्या बने रहते हैं। वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों जगतों के परम भोक्ता हैं, फिर भी वे वैकुण्ठ स्थित अपने धाम का भोग करते हैं। कोई भी उनके समतुल्य नहीं है, क्योंकि उनका दिव्य ऐश्वर्य अमाप्य है।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूपों के दो पहलू हैं। शुद्ध भक्तों के वे नित्य संगी हैं— यथा यदुवंशी होकर या अर्जुन के सखा बनकर या वृन्दावनवासियों के संगी-पड़ोसी बनकर, नन्द यशोदा के पुत्र बनकर, सुदामा, श्रीदामा तथा मधुमंगल के मित्र बनकर या व्रजभूमि की बालाओं के प्रेमी बनकर इत्यादि-इत्यादि। यह उनके साकार स्वरूप का अंग है। अपने निर्विशेष रूप में वे ब्रह्मज्योति की किरणें प्रसारित करतें हैं, जो असीम तथा सर्वव्यापी हैं। सूर्य किरणों के तुल्य इस सर्वव्यापी ब्रह्म-ज्योति का एक अंश महत् तत्त्व के अंधकार से आच्छादित रहता है और यही नगण्य अंश भौतिक जगत कहलाता है। इस भौतिक जगत में ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं जिस तरह के ब्रह्माण्ड का हम अनुभव कर रहे हैं और इनमें लाखों ऐसे लोक हैं—जैसे उनमें से एक लोक में हम रह रहे हैं। संसारी लोग भगवान् की किरणों के असीम विस्तार से किसी न किसी प्रकार से मोहित होते हैं, किन्तु भक्तों को भगवान् के साकार रूप से ही प्रयोजन रहता है, क्योंकि उसी से प्रत्येक वस्तु उद्भूत होती है (जन्माद्यस्य यत:)। जिस प्रकार सूर्य की किरणें सूर्य-मण्डल में संकेन्द्रित रहती हैं, उसी तरह ब्रह्मज्योति सर्वोच्च लोक गोलोक वृन्दावन में संकेन्द्रित रहती है। असीम आध्यात्मिक आकाश वैकुण्ठ-लोकों से भरा हुआ है और भौतिक आकाश से बहुत दूर है। जहाँ संसारी लोगों को सांसारिक आकाश के विषय में ही अपर्याप्त ज्ञान हो, भला वे आध्यात्मिक आकाश के विषय में किस तरह सोच सकते हैं? अतएव संसारी लोग सदैव भगवान् से बहुत दूर रहते हैं। भविष्य में यदि वे ऐसा यन्त्र बना भी लें, जिसकी गति वायु या मन के वेग के तुल्य हो, तो भी संसारी मनुष्य आध्यात्मिक आकाश के लोकों तक पहुँचने की कल्पना नहीं कर सकते। अत: भगवान् तथा उनका वासस्थान सदा-सदा के लिए रहस्य या कल्पना बना रहेगा। किन्तु भगवान् भक्तों के लिए सदैव संगी के रूप में बने रहेंगे।

आध्यात्मिक आकाश में उनका ऐश्वर्य अपरिमेय है। भगवान् समस्त दिव्य वैकुण्ठ लोकों में अपने अंशों का विस्तार करके मुक्त पार्षदों के साथ निवास करते हैं, किन्तु जो निर्विशेषवादी भगवान् से तदाकार होना चाहते हैं उनको, ब्रह्मज्योति की एक आध्यात्मिक स्फुलिंग के रूप में तदाकार होने दिया जाता है। उनमें इतनी योग्यता नहीं होती कि वे वैकुण्ठ लोकों में, या परमलोक, गोलोक वृन्दावन में भगवान् के पार्षद बन सकें, जिसका उल्लेख भगवद्गीता में मद्धाम के रूप में हुआ है और इस श्लोक में स्वधाम कहा गया है।

भगवद्गीता (१५.६) में मद्धाम या स्वधाम का वर्णन इस प्रकार हुआ है।

न तद् भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक:।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम् परमं मम ॥

भगवान् के स्वधाम में न तो सूर्यप्रकाश की आवश्यकता पड़ती है, न चाँदनी की, न बिजली जगमगाने की। वह धाम या स्थान सर्वश्रेष्ठ है और जो भी वहाँ जाता है, वह फिर कभी इस भौतिक जगत में वापस नहीं आता।

वैकुण्ठ लोक तथा गोलोक वृन्दावन स्वत: प्रकाशित रहते हैं और भगवान् के इस स्वधाम से विकीर्ण किरणें ही ब्रह्मज्योति का निर्माण करती हैं। इसकी पुष्टि मुण्डक (२.२.१०), कठ (२.२.१५) तथा श्वेताश्वतर (६.१४) उपनषिदों में भी हुई है।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयम् अग्नि:।

तमेव भान्तम् अनु भाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥

भगवान् के स्वधाम में प्रकाश के लिए सूर्य, चन्द्रमा या तारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। न ही वहाँ बिजली की आवश्यकता है; तो फिर दीपकों के विषय में क्या कहा जाय? दूसरी ओर इन लोकों के स्वत: प्रकाशित होने के कारण ही सारा तेज सम्भव है और वहाँ जो भी जाज्वल्यमान है, वह उस स्वधाम के परावर्तन के कारण है।

जो निर्विशेष ब्रह्मज्योति से चकाचौंध हो जाता है, वह साक्षात् भगवान् को नहीं जान सकता। अतएव ईशोपनिषद् (१५) में यह प्रार्थना की गई है कि भगवान् अपने चमत्कृत तेज को हटा लें, जिससे भक्त वास्तविकता का दर्शन कर सके। यह श्लोक इस प्रकार है—

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।

तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥

“हे भगवान्! आप भौतिक तथा आध्यात्मिक सभी वस्तुओं के पालक हैं और प्रत्येक वस्तु आपकी कृपा से फलती-फूलती है। आपका भक्तियोग ही धर्म का वास्तविक सिद्धान्त अर्थात् सत्यधर्म है और मैं उस सेवा में लगा हुआ हूँ। कृपया अपने असली मुख का दर्शन देकर मेरी रक्षा करें। अतएव आप अपनी ब्रह्मज्योति किरणों के इस अवगुण्ठन को हटा लें, जिससे मैं आपके सच्चिदानन्द स्वरूप का दर्शन कर सकूँ।”

 
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