भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को या उन सबों को, जो उनके अनन्य भक्त बनना चाहते हैं, बारम्बार उपदेश दिया है। उन्होंने भगवद्गीता (१८.६४-६६) में अपने अन्तिम उपदेश में, अत्यन्त गुह्य उपदेश दिया है— सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥
“हे प्रिय अर्जुन! तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो। अतएव तुम्हारे ही कल्याण के लिए मैं अपने गुह्यतम उपदेश को प्रकट करूँगा। वह इस तरह है—तुम मेरे शुद्ध भक्त बन जाओ और मुझे आत्म-समर्पण कर दो। मैं तुम्हें पूर्ण आध्यात्मिक जीवन का वचन देता हूँ, जिससे तुम मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति का नित्य अधिकार प्राप्त कर सकोगे। तुम अन्य सारी धार्मिकता की विधियाँ त्याग दो और एकमात्र मेरी शरण में आ जाओ और यह विश्वास करो कि मैं तुम्हें सारे पाप पूर्ण कृत्यों से बचाऊँगा और तुम्हारा उद्धार करूँगा। तुम तनिक भी चिन्ता न करो।”
जो लोग बुद्धिमान हैं, वे भगवान् के इस अन्तिम उपदेश पर ध्यान देते हैं। आध्यात्मिक अनुभूति गुह्यज्ञान कहलाती है और आत्म-ज्ञान इस दिशा में पहला कदम है। इसके बाद का कदम ईश साक्षात्कार है, जो गुह्यतर ज्ञान कहलाता है। ‘भगवद्गीता’ के ज्ञान की चरम परिणति ईश-साक्षात्कार है और जब कोई इस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तो वह स्वेच्छा से भगवान् का भक्त बन कर उनकी दिव्य प्रेमाभक्ति करने लगता है। भगवान् की यह भक्ति सदैव ईशप्रेम पर निर्भर रहती है और कर्म योग, ज्ञानयोग या ध्यानयोग में स्वीकृत औपचारिक सेवा से भिन्न है। भगवद्गीता में विभिन्न वर्ग के लोगों के लिए विभिन्न उपदेश हैं और वर्णाश्रम धर्म, संन्यास धर्म, यति धर्म, जीवन की विरक्त अवस्था, इन्द्रिय-दमन, ध्यान, यौगिक शक्तियों की सिद्धि इत्यादि के विभिन्न वर्णन मिलते हैं, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् की सेवा करने के उद्देश्य से रागानुग प्रेम से उनकी शरण में जाता है, वही वेदों में वर्णित ज्ञान के सार को आत्मसात् कर पाता है। जो इस विधि को कौशल के साथ ग्रहण करता है, वह तुरन्त जीवन की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। यही जीवन-सिद्धि ब्रह्मगति कहलाती है। जैसाकि श्रील जीव गोस्वामी ने वैदिक आश्वासनों के आधार पर बताया है ब्रह्मगति का अर्थ है भगवान् जैसा आध्यात्मिक रूप प्राप्त करना और उस रूप में मुक्तजीव परव्योम में किसी एक वैकुण्ठ लोक में नित्य निवास करता है। जीवन की यह सिद्धि भगवान् के शुद्ध भक्त को सिद्धि की कठोर साधना किये बिना प्राप्त होती है।
ऐसा भक्तिमय जीवन कीर्तनम्, स्मरणम्, ईक्षणम् आदि से पूर्ण होता है जैसाकि पिछले श्लोक में उल्लेख हुआ है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि भक्तिमय जीवन की इस शैली को ग्रहण करके विश्व के किसी भी भाग में मानव जीवन की किसी भी श्रेणी में सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करे। जब ब्रह्माजी वृन्दावन में क्रीड़ा करते हुए बालक रूप में भगवान् कृष्ण से मिले, तो उन्होंने इस प्रकार से स्तुति की—
श्रेय: सृतिं भक्तिमुदस्य ते विभो क्लिश्यन्ति ये केवलबोधलब्धये।
तेषामसौ क्लेशल एव शिष्यते नान्यद् यथा स्थूलतुषावघातिनाम् ॥
(भागवत १०.१४.४) भक्तियोग उच्चकोटि की सिद्धि है, जिसे बुद्धिमान व्यक्ति, प्रचुर आध्यात्मिक कार्य के बदले में प्राप्त करता है। यहाँ पर दिया गया उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है। मुट्ठी भर चावल धान की भूसी के ढेर से कहीं अधिक मूल्यवान होता है। इस प्रकार मनुष्य को चाहिए कि वह कर्मकाण्ड या ज्ञानकाण्ड या योग आसनों के इन्द्रजाल के प्रति आकृष्ट न हो, अपितु प्रामाणिक गुरु के निर्देश में कीर्तनम्, स्मरणम् जैसी सरल विधियों को ग्रहण करके बिना किसी कठिनाई के चरम सिद्धि प्राप्त करे।