तपस्विनो दानपरा यशस्विनो
मनस्विनो मन्त्रविद: सुमङ्गला: ।
क्षेमं न विन्दन्ति विना यदर्पणं
तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नम: ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
तपस्विन:—बड़े-बड़े विद्वान् ऋषि; दान-परा:—बड़े-बड़े दानी; यशस्विन:—बड़े-बड़े लब्धप्रतिष्ठ; मनस्विन:—बड़े-बड़े दार्शनिक या योगी; मन्त्र-विद:—वैदिक मन्त्रों के उच्चारण करनेवाले; सु-मङ्गला:—वैदिक सिद्धान्तों के कट्टर अनुयायी; क्षेमम्—सकाम फल; न—कभी नहीं; विन्दन्ति—प्राप्त करते हैं; विना—रहित; यत्-अर्पणम्—समर्पण; तस्मै—उसको; सुभद्र—शुभ; श्रवसे—उसके विषय में सुनकर; नम:—मेरा नमस्कार; नम:—पुन: पुन: ।.
अनुवाद
मैं समस्त मंगलमय भगवान् श्रीकृष्ण को पुन: पुन: सादर नमस्कार करता हूँ, क्योंकि बड़े बड़े विद्वान ऋषि, बड़े-बड़े दानी, यश-लब्ध कार्यकर्ता, बड़े-बड़े दार्शनिक तथा योगी, बड़े बड़े वेदपाठी तथा बड़े-बड़े वैदिक सिद्धान्तों के बड़े-बड़े अनुयायी तक भी ऐसे महान् गुणों को भगवान् की सेवा में समर्पित किये बिना कोई क्षेम (कुशलता) प्राप्त नहीं कर पाते।
तात्पर्य
विद्या में प्रगति, दानशीलता, मानव-समाज का राजनीतिक, सामाजिक या धार्मिक नेतृत्व, दार्शनिक चिन्तन, योगाभ्यास, वैदिक अनुष्ठानों में निपुणता तथा मनुष्य के ऐसे ही सारे उत्तम गुण उसकी सिद्धि-प्राप्ति में तभी सहायक बनते हैं जब उनका उपयोग भगवान् की सेवा मेंं किया जाय। ऐसा किये बिना ये सारे गुण मनुष्य के लिए कष्ट के कारण बन जाते हैं। प्रत्येक वस्तु का उपयोग या तो अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए या फिर अपने अतिरिक्त अन्यों की सेवा के लिए हो सकता है। स्वार्थ के भी दो प्रकार हैं—निजी स्वार्थ तथा विस्तारित स्वार्थ। लेकिन इन दोनों प्रकार के स्वार्थों में कोई गुणात्मक यअन्तर नहीं है। चोरी चाहे निजी स्वार्थ के लिए की जाय या पारिवारिक स्वार्थ के लिए, वह एक-जैसी होती है—अर्थात् अपराधमय। यदि कोई चोर अपने लिए नहीं, अपितु समाज या देश के हित के लिए चोरी करने के कारण अपने को निर्दोष बताये, तो किसी भी देश के कानून द्वारा उसे क्षमा नहीं किया जा सकता। सामान्य लोगों को इसका ज्ञान नहीं रहता कि जीव का स्वार्थ तभी पूर्णता को प्राप्त होता है जब ऐसा स्वार्थ भगवान् के स्वार्थ से अभिन्न होता है। उदाहरणार्थ, शरीर तथा आत्मा का एकसाथ पालन-पोषण करने में क्या स्वार्थ है? मनुष्य शरीर पालने के लिए (निजी या सामाजिक) धन कमाता है, किन्तु जब तक ईश-चेतना न रहे, जब तक शरीर का पालन ईश्वर के साथ अपने सम्बन्ध की अनुभूति प्राप्त करने के लिए न हो तब तक शरीर तथा आत्मा का एकसाथ पालन करने के सारे प्रयास पशु द्वारा शरीर तथा आत्मा का पालन करने के सदृश ही हैं। मनुष्य शरीर के पालन-पोषण का प्रयोजन पशुओं से भिन्न होता है। इसी प्रकार विद्या की प्रगति, आर्थिक विकास, दार्शनिक शोध, वैदिक साहित्य का अध्ययन या कि पुण्यकर्मों को सम्पन्न करना (यथा दान, अस्पताल खोलना, अन्नदान), ये सारे कार्य भगवान् से सम्बन्धित होने चाहिए। ऐसे सारे कार्यों तथा प्रयासों का उद्देश्य भगवान् की प्रसन्नता होना चाहिए, किसी सत्ता, व्यक्ति या समूह की तुष्टि नहीं (संसिद्धिर्हरि तोषणम्)। भगवद्गीता (९.२७) में इसी सिद्धान्त की पुष्टि की गई है जहाँ पर यह कहा गया है कि हम जो भी दान दें तथा जो भी तपस्या करें, वह सब भगवान् को अर्पित कर देना चाहिए या उन्हीं के निमित्त करना चाहिए। ईश्वरविहीन मानवीय सभ्यता के पटु नेतागण, तब तक शैक्षिक उन्नति या आर्थिक उन्नति के विविध प्रयासों में कोई सफलता प्राप्त नहीं कर सकते, जब तक वे ईशभावनाभावित न हों। ईश्वरभावनाभावित होने के लिए मनुष्य को सर्वमंगलमय भगवान् के विषय में उस तरह से श्रवण करना होता है, जिस रूप में भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में उनका वर्णन हुआ है।
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