भूतैर्महद्भिर्य इमा: पुरो विभु-
र्निर्माय शेते यदमूषु पूरुष: ।
भुङ्क्ते गुणान् षोडश षोडशात्मक:
सोऽलङ्कृषीष्ट भगवान् वचांसि मे ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
भूतै:—तत्त्वों के द्वारा; महद्भि:—भौतिक सृष्टि के; य:—जो; इमा:—ये सब; पुर:—शरीर; विभु:—भगवान् के; निर्माय— तैयार करने के लिए; शेते—लेटते हैं; यत् अमूषु—अवतीर्ण होनेवाला; पूरुष:—भगवान् विष्णु; भुङ्क्ते—प्रभावित करते हैं; गुणान्—तीनों गुणों को; षोडश—सोलह भागों में; षोडश-आत्मक:—इन सोलह का जनक होने से; स:—वह; अलङ्कृषीष्ट— सुसज्जित करे; भगवान्—भगवान्; वचांसि—वाणी को; मे—मेरी ।.
अनुवाद
ब्रह्माण्ड के भीतर लेटकर जो तत्त्वों से निर्मित शरीरों को प्राणमय बनाते हैं और जो अपने पुरुष-अवतार में जीव को भौतिक गुणों के सोलह विभागों को, जो जीव के जनक रूप हैं अधीन करते हैं, वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् मेरे प्रवचनों को अलंकृत करने के लिए प्रसन्न हों।
तात्पर्य
पूर्ण आश्रित भक्त के रूप में (अपनी सामर्थ्य पर गर्व करनेवाले संसारी व्यक्ति से सर्वथा विपरीत) शुकदेव गोस्वामी भगवान् से प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करते हैं जिससे उनके प्रवचन सफल हो और श्रोताओं द्वारा समादृत हो। भक्त सदैव अपने आपको किसी भी सफलता में निमित्त मात्र मानता है और अपने द्वारा किये गये किसी भी कृत्य का श्रेय लेने से इनकार करता है, जबकि ईशविहीन नास्तिक कार्यकलापों का सारा श्रेय लेना चाहता है, जो यह भी नहीं जानता कि परमात्मा भगवान् की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। अतएव शुकदेव गोस्वामी उन परमेश्वर के निर्देशानुसार आगे बढऩा चाहते हैं, जिन्होंने ब्रह्माजी को वैदिक ज्ञान व्यक्त करने के लिए प्रेरणा दी। वैदिक ग्रंथों में वर्णित सत्य न तो संसारी कल्पना के सिद्धान्त हैं, न वे कपोलकल्पित हैं जैसाकि अल्पज्ञ लोग कभी- कभी सोचते हैं। वैदिक सत्य वास्तविक सत्य के पूर्ण विवरण हैं जिनमें न तो त्रुटि है, न भ्रम। शुकदेव गोस्वामी सृष्टि सम्बन्धी सत्यों को वास्तविक तथ्यों के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं, न कि दार्शनिक चिन्तक के किसी तत्त्व-ज्ञान के सिद्धान्त के रूप में, क्योंकि वे उसी तरह भगवान् के इशारे पर चलेंगे जिस तरह ब्रह्माजी अनुप्राणित हुए थे। जैसाकि भगवद्गीता (१५.१५) में कहा गया है, भगवान् स्वयं वेदान्त-ज्ञान के जनक हैं और वेदान्त-दर्शन के वास्तविक तात्पर्य को जाननेवाले एकमात्र वही हैं। अतएव वेदों में वर्णित धर्म के सिद्धान्तों से बढक़र कोई सत्य नहीं है। ऐसा वैदिक ज्ञान या धर्म शुकदेव गोस्वामी जैसे प्रामाणिक पुरुष द्वारा फैलता है क्योंकि वे भगवान् के विनीत दास थे जिन्हें स्व नियुक्त व्याख्याकार बनने की कोई इच्छा न थी। वैदिक ज्ञान की व्याख्या की यही विधि है, जिसे परम्परा प्रणाली कहते हैं।
बुद्धिमान व्यक्ति यह देख सकता है कि चाहे कोई भी भौतिक सृष्टि (चाहे अपना शरीर हो, या फल या फूल) हो, आध्यात्मिक स्पर्श के बिना वह सुन्दरता के साथ वृद्धि नहीं कर पाती। संसार का सर्वाधिक बुद्धिमान व्यक्ति या विज्ञानी किसी भी वस्तु को तभी ढंग से प्रस्तुत कर सकता है जब उसमें जीवन हो या आध्यात्मिक स्पर्श हो। अतएव समस्त सत्यों का स्रोत परमात्मा है, स्थूल पदार्थ नहीं, जैसाकि भ्रमवश निपट भौतिकतावादी सोचता है। वैदिक साहित्य से हमें पता चलता है कि सर्वप्रथम भगवान् ने भौतिक ब्रह्माण्ड के शून्य में प्रवेश किया और तब सारी वस्तुएँ एक-एक करके विकसित हुईं। इसी प्रकार भगवान् परमात्मा के रूप में प्रत्येक प्राणी के घर-घर में स्थित हैं, अतएव उनके द्वारा सारे कार्य अच्छे ढंग से सम्पन्न होते हैं। सोलह प्रमुख सृजनकारी तत्त्व, जिनके नाम हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तथा ग्यारह इन्द्रियाँ, साक्षात् भगवान् से विकसित हुए और तब जीवों में बँट गए। इस तरह भौतिक तत्त्वों का सृजन जीवों के भोग के लिए किया गया। अतएव समस्त भौतिक अभिव्यक्तियों के पीछे जो सुन्दर व्यवस्था है, वह भगवान् की शक्ति द्वारा सम्भव होती है और प्रत्येक जीव उसे ठीक से समझने के लिए भगवान् से प्रार्थना ही कर सकता है। चूँकि भगवान् परम चेतना हैं और शुकदेव गोस्वामी से भिन्न हैं, अतएव उनकी प्रार्थना की जानी चाहिए। भगवान् भौतिक सृष्टि का भोग करने में जीव की सहायता करते हैं, किन्तु वे ऐसे झूठे भोग से पृथक् रहते हैं। शुकदेव गोस्वामी भगवान् से कृपा करने के लिए प्रार्थना करते हैं जिससे वे सत्य को प्रस्तुत करने में स्वयं सहायता पाने के साथ-साथ उन लोगों की भी सहायता करें जिन्हें वे सुनाने जा रहे हैं।
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