नम:—मेरा नमस्कार है; तस्मै—उस; भगवते—भगवान् को; वासुदेवाय—वासुदेव या उनके अवतारों को; वेधसे—वैदिक ग्रंथों के संकलनकर्ता; पपु:—पान किया गया; ज्ञानम्—ज्ञान; अयम्—यह वैदिक ज्ञान; सौम्या:—भक्तगण, विशेष रूप से भगवान् कृष्ण की प्रेमिकाएँ; यत्—जिनके; मुख-अम्बुरुह—कमल सदृश मुख का; आसवम्—अमृत ।.
अनुवाद
मैं साक्षात् वासुदेव के अवतार उन श्रील व्यासदेव को सादर नमस्कार करता हूँ जिन्होंने वैदिक शास्त्रों का संकलन किया। शुद्ध भक्तगण भगवान् के कमल सदृश मुख से टपकते हुए अमृतोपम दिव्य ज्ञान का पान करते हैं।
तात्पर्य
वेधसे शब्द की व्याख्या करते हुये श्रील श्रीधर स्वामी ने टीका की है कि इस शब्द द्वारा श्रील व्यासदेव को सादर नमस्कार किया गया है, जो वासुदेव के अवतार हैं। श्रील जीव गोस्वामी ने इसे स्वीकार किया है, लेकिन श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर एक कदम आगे हैं कि भगवान् कृष्ण के मुख से टपकता अमृत उनकी विभिन्न प्रेमिकाओं के मुखों में चला जाता है, जिससे वे संगीत, नृत्य, वेशसज्जा, अलंकरण जैसी ललित कलाएँ एवं वे सारी बातें जानती हैं, जो भगवान् को आस्वाद्य हैं। भगवान् द्वारा आस्वाद्य ऐसा संगीत, नृत्य तथा अलंकरण संसारी नहीं होता, क्योंकि भगवान् को प्रारम्भ में ही परम् अर्थात् दिव्य कहकर सम्बोधित किया गया है। भुलक्कड़ बद्ध-जीवों को यह दिव्य ज्ञान अज्ञात है। भगवान् के अवतार श्रील व्यासदेव ने वैदिक साहित्य का इसीलिये संकलन किया जिससे बद्धजीव भगवान् के साथ अपने विसरे हुए सम्बन्धों को फिर से स्मरण कर सकें, अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह वैदिक शास्त्रों को, या कहें कि माधुर्य रस में भगवान् द्वारा अपनी प्रेमिकाओं को किये गये अमृत दान को, समझने के लिए व्यासदेव या शुकदेव के कमलमुख से सुनें। दिव्य ज्ञान के क्रमिक विकास द्वारा मनुष्य संगीत तथा नृत्य की उस दिव्य कला को प्राप्त हो सकता है, जिसे भगवान् ने अपनी रासलीला के समय प्रदर्शित किया। लेकिन वैदिक ज्ञान के अभाव में भगवान् के रास-नृत्य तथा संगीत की दिव्य प्रकृति को समझ पाना कठिन है। किन्तु भगवान् के शुद्ध भक्त इस अमृत का आस्वादन अगाध दार्शनिक वार्ताओं के रूप में तथा रास-नृत्य में भगवान् द्वारा चुम्बन के रूप में करते हैं, क्योंकि इन दोनों में कोई भौतिक अन्तर नहीं है।
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