श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 4: सृष्टि का प्रक्रम  »  श्लोक 3-4
 
 
श्लोक  2.4.3-4 
पप्रच्छ चेममेवार्थं यन्मां पृच्छथ सत्तमा: ।
कृष्णानुभावश्रवणे श्रद्दधानो महामना: ॥ ३ ॥
संस्थां विज्ञाय संन्यस्य कर्म त्रैवर्गिकं च यत् ।
वासुदेवे भगवति आत्मभावं द‍ृढं गत: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
पप्रच्छ—पूछा; च—भी; इमम्—यह; एव—इसी तरह; अर्थम्—प्रयोजन; यत्—जो; माम्—मुझसे; पृच्छथ—आप पूछते हैं; सत्तमा:—हे महर्षियो; कृष्ण-अनुभाव—कृष्ण के विचार में लीन; श्रवणे—सुनने में; श्रद्दधान:—श्रद्धा से पूर्ण; महा-मना:— महात्मा; संस्थाम्—मृत्यु; विज्ञाय—जानकर; सन्न्यस्य—त्याग कर; कर्म—सकाम कर्म; त्रै-वर्गिकम्—धर्म, अर्थ तथा काम नामक तीन सिद्धान्त; च—भी; यत्—जो भी हो; वासुदेवे—भगवान् कृष्ण में; भगवति—भगवान्; आत्म-भावम्—प्रेम का आकर्षण; दृढम्—ठीक से स्थिर; गत:—प्राप्त किया ।.
 
अनुवाद
 
 हे महर्षियो, महात्मा महाराज परीक्षित ने भगवान् कृष्ण के विचार में निरन्तर लीन रहते हुए, अपनी मृत्यु को आसन्न जानकर, सारे सकाम कर्म अर्थात् धर्म के कार्य, आर्थिक विकास तथा इन्द्रिय तृप्ति त्याग दिए और कृष्ण के लिए सहज प्रेम में अपने को दृढ़ता से स्थिर कर लिया। तब उन्होंने इन सारे प्रश्नों को उसी तरह पूछा जिस तरह तुम सब मुझसे पूछ रहे हो।
 
तात्पर्य
 इस संसार में जीवन-संघर्ष में रत बद्धजीवों के लिए सामान्यतया धर्म, आर्थिक विकास तथा इन्द्रिय तृप्ति—ये तीन कर्म आकर्षक होते हैं। वेदों में बताये गये ऐसे नियमित कार्यकलाप जीवन की कर्म-काण्डीय धारणा कहलाते हैं और सामान्य रूप से गृहस्थों से कहा जाता है कि इस जीवन में तथा अगले जीवन में भौतिक सम्पन्नता भोगने के लिए इन नियमों का पालन करें। अधिकांश लोग ऐसे कार्यकलापों के प्रति आकृष्ट होते हैं। यहाँ तक कि आधुनिक ईश्वरविहीन सभ्यता के कार्यकलापों में भी लोग धार्मिक भावना के बिना ही आर्थिक विकास तथा इन्द्रिय तृप्ति के विषय में अधिक चिन्तित रहते हैं। महाराज परीक्षित को चक्रवर्ती सम्राट होने के नाते वैदिक कर्मकाण्डीय अनुभाग के ऐसे विधि-विधानों का पालन करना अनिवार्य था, लेकिन शुकदेव गोस्वामी की संगति मात्र से वे यह भलीभाँति जान सके कि भगवान् श्रीकृष्ण (वासुदेव) ही सर्वेसर्वा हैं, जिनके प्रति उन्हें अपने जन्म से ही सहज प्रेम था। इस प्रकार उन्होंने समस्त वैदिक कर्मकाण्डीय कार्यों को त्याग कर भगवान् पर अपना मन स्थिर कर लिया। यह सिद्धि-अवस्था ज्ञानियों को कई जन्मों के बाद प्राप्त हो पाती है। मुक्ति के लिए प्रयत्नशील ये ज्ञानी सकाम कर्मियों से हजार गुना अच्छे हैं और ऐसे लाखों ज्ञानियों में कोई एक वास्तव में मुक्त हो पाता है। ऐसे लाखों मुक्त व्यक्तियों में से विरला ही कोई एक ऐसा होता है, जो भगवान् के चरणकमलों में अपने मन को स्थिर कर पाता है जैसाकि भगवान् ने स्वयं भगवद्गीता (७.१९) में घोषित किया है। महाराज परीक्षित को विशेष रूप से महामना: शब्द से विभूषित किया गया है, जो उन्हें भगवद्गीता में वर्णित महात्माओं के समान बना देता है। बाद के युगों में भी इस तरह के अनेक महात्मा हुए हैं। वे भी जीवन की समस्त कर्मकाण्डीय धारणाओं का परित्याग करके भगवान् पर पूर्ण-रूपेण आश्रित रहे। भगवान् चैतन्य ने, जो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, शिक्षाष्टक (८) में शिक्षा दी है—

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान् मर्महतां करोतु वा।

यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापर: ॥

“अनेक भक्तों (स्त्रियों) के प्रेमी भगवान् कृष्ण, चाहे मुझ शरणागत दासी का आलिंगन करें, या अपने पाँवों के नीचे रौंद दें, या मेरे समक्ष दीर्घकाल तक प्रकट न होकर मेरे हृदय को भग्न कर दें, तो भी वे मेरे हृदय के परमेश्वर हैं।”

श्रील रूप गोस्वामी ने इस प्रकार कहा है—

विरचय मयि दण्डं दीनबन्धो दयामी वा गतिरिह न भवत्त: काचिदन्या ममास्ति।

निपततु शतकोटिनिर्भरं वा नवाम्भ: तदपि किलपयोद: स्तूयते चातकेन ॥

“हे दीनों के स्वामी! आप जैसा चाहें मेरे साथ करें। चाहे आप दया दिखायें या दण्ड दें, लेकिन इस जगत में आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जिसको मैं निहारूँ। चातक पक्षी सदैव बादल से प्रार्थना करता है, चाहे वह वृष्टि करे या वज्र गिरा दे।”

श्री भगवान् चैतन्य के दादागुरु, श्रील माधवेन्द्रपुरी, ने निम्नलिखित शब्दों के साथ समस्त कर्मकाण्डीय उत्तरदायित्वों से छुट्टी पा ली थी।

सन्ध्यावन्दन भद्रमस्तु भवतो भो: स्नान तुभ्यं नमो भो देवा: पितरश्च तर्पणविधौ नाहं क्षम: क्षम्यताम्।

यत्र क्वापि निषद्य यादवकुलोत्तमस्य कंसद्विष: स्मारं स्मारमघं हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे ॥

“हे सन्ध्यावन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। हे प्रात:स्नान! मैं तुम्हें अन्तिम नमस्कार करता हूँ। हे देवो तथा पितरो! आप मुझे क्षमा करें। मैं आपकी प्रसन्नता के लिए और अधिक अर्पण करने में अक्षम हूँ। अब मैंने महान् यदुवंशी तथा कंस के महान् शत्रु (भगवान् श्रीकृष्ण) को सर्वत्र स्मरण करते हुए, अपने समस्त पापों के फलों से अपने को मुक्त करने का निश्चय किया है। मैं सोचता हूँ कि यही मेरे लिए पर्याप्त है। अतएव अब आगे प्रयास करने से क्या लाभ?”

श्रील माधवेन्द्रपुरी ने आगे कहा है—

मुग्धं मां निगदन्तु नीतिनिपुणा भ्रान्तं मुहुर्वैदिका: मन्दं बान्धवसञ्चया जडधियं मुक्तादरा: सोदरा:।

उन्मत्तं धनिनो विवेकचतुरा: कामम् महादाम्भिकम् मोक्तुं न क्षामते मनागपि मनो गोविन्दपादस्पृहाम् ॥

“भले ही नीतिनिपुण लोग मुझ पर भ्रमित होने का दोषारोपण करें, किन्तु मुझे इसकी परवाह नहीं है। वैदिक कर्मों में पटु लोग मुझे पथभ्रष्ट कह लें, मेरे मित्र तथा सम्बन्धी मुझे हताश कहें, मेरे भाई मुझे मूर्ख कहें और धनवान लोग मुझे पागल कहकर अँगुली उठायें और विद्वान दार्शनिक भले ही मुझे अतीव दम्भी कहें, तो भी मेरा मन गोविन्द के चरणकमलों की सेवा के संकल्प से रंचमात्र भी नहीं हटता यद्यपि मैं ऐसा कर पाने में असमर्थ हूँ।”

और प्रह्लाद महाराज ने भी कहा है—

धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ता।

मन्ये तदेतद् अखिलं निगमस्य सत्यं स्वात्मार्पणं स्वसुहृद: परमस्य पुंस: ॥

“मोक्ष पथ प्राप्त करने के तीन उपाय माने गये हैं—धर्म, अर्थ तथा काम। इनमें से विशेष रूप से इच्छात्रयी—आत्मज्ञान, सकाम कर्म का ज्ञान, तर्क तथा राजनीति एवं अर्थशास्त्र—जीविका के विभिन्न साधन हैं। ये सब वैदिक शिक्षा के विभिन्न विषय हैं, अतएव मैं इन्हें क्षणिक गतिविधियाँ मानता हूँ। इसके विपरीत, भगवान् विष्णु की शरणागति जीवन का वास्तविक लाभ है और मैं इसे परम सत्य मानता हूँ।” (भागवत ७.६.२६) भगवद्गीता (२.४१) में इस सारे विषय को व्यवसायात्मिका बुद्धि के रूप में या सिद्धि के परम पथ के रूप में माना गया है। महान् वैष्णव विद्वान श्री बलदेव विद्याभूषण ने इसकी परिभाषा भगवद्- अर्चना-रूपैक-निष्काम-कर्मभिर्विशुद्धचित्त: के रूप में दी है अर्थात् सकाम कर्मफल से मुक्त होकर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को मूल कर्तव्य समझना।

अतएव महाराज परीक्षित बिल्कुल सही थे जब उन्होंने जीवन की समस्त कर्मकाण्डीय धारणाओं को त्यागकर भगवान् के चरणकमलों को दृढ़ता से अपना लिया।

 
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