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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 4: सृष्टि का प्रक्रम  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  2.4.6 
भूय एव विवित्सामि भगवानात्ममायया ।
यथेदं सृजते विश्वं दुर्विभाव्यमधीश्वरै: ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
भूय:—फिर; एव—भी; विवित्सामि—मैं जानने का इच्छुक हूँ; भगवान्—भगवान्; आत्म—निजी; मायया—शक्तियों से; यथा—जिस तरह; इदम्—यह व्यवहार जगत; सृजते—सृजन करता है; विश्वम्—ब्रह्माण्ड को; दुर्विभाव्यम्—अचिन्त्य; अधीश्वरै:—महान् देवताओं द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि भगवान् किस प्रकार अपनी निजी शक्तियों से इस रूप में इन दृश्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि करते हैं, जो बड़े से बड़े देवताओं के लिए भी अचिन्त्य हैं।
 
तात्पर्य
 प्रत्येक जिज्ञासु मन में इस दृश्य जगत की सृष्टि का महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठता रहता है। अतएव महाराज परीक्षित जैसे व्यक्ति के द्वारा इस तरह का प्रश्न असामान्य नहीं है, क्योंकि उन्हें अपने गुरु से भगवान् के सारे कार्यकलाप समझने थे। हमें प्रत्येक अपरिचित वस्तु को किसी विद्वान से जानना तथा पूछना होता है। सृष्टि का प्रश्न भी ऐसा ही है, जिसे सही व्यक्ति से पूछना चाहिए। अतएव गुरु को ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो सर्वज्ञ हो, जैसाकि यहाँ पर शुकदेव गोस्वामी के विषय में कहा गया है। इस तरह ईश्वर सम्बन्धी ऐसे सारे प्रश्न जो शिष्य को ज्ञात न हों, योग्य गुरु से पूछे जाने चाहिए और यहाँ पर महाराज परीक्षित इसका व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। किन्तु महाराज परीक्षित को यह पहले से ज्ञात था कि प्रत्येक दिखाई देने वाली वस्तु भगवान् की शक्ति से उत्पन्न होती है, जैसाकि हम श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में ही सीख चुके हैं (जन्माद्यस्य यत:)। अत: महाराज परीक्षित सृष्टि-रचना की प्रक्रिया जानना चाहते थे। उन्हें सृष्टि का उद्गम ज्ञात था अन्यथा वे यह प्रश्न कैसे कर सकते थे कि भगवान् ने अपनी विभिन्न शक्तियों से इस व्यवहार जगत की सृष्टि कैसे की? सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि यह सृष्टि किसी स्रष्टा द्वारा बनाई गई है, स्वत: उत्पन्न नहीं हुई है। हमें संसार में ऐसा कोई अनुभव नहीं है जहाँ कोई वस्तु स्वत: उत्पन्न हुई हो। मूर्ख लोग कहते हैं कि सृजनात्मक शक्ति स्वतन्त्र है और उसी तरह स्वत:कार्यशील है, जिस तरह कि विद्युतशक्ति होती है। किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि विद्युतशक्ति भी स्थानीय शक्तिघर में दक्ष इंजीनियर (शिल्पी) के निर्देन में उत्पन्न की जाती है और रेजिडेन्ट इंजीनियर के निरीक्षण में सर्वत्र वितरित की जाती है। सृष्टि के सम्बन्ध में भगवान् की अध्यक्षता का वर्णन भगवद्गीता (९.१०) में भी मिलता है और वहाँ पर यह स्पष्ट उल्लेख है कि भौतिक शक्ति परमेश्वर की ऐसी अनेक शक्तियों में से एक का प्राकट्य है (परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते)। एक अनुभवशून्य बालक इलेक्ट्रानिकी के निराकार कार्यकलापों को देखकर या विद्युत शक्ति से सम्बन्धित अनेक आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर आश्चर्यचकित हो सकता है, लेकिन एक अनुभवी व्यक्ति जानता है कि इन कार्यों के पीछे एक सजीव व्यक्ति रहता है, जो ऐसी शक्ति उत्पन्न करता है। इसी प्रकार संसार के तथाकथित विद्वान तथा विचारक अपने-अपने मानसिक चिन्तन द्वारा ब्रह्माण्ड की निराकार सृष्टि के विषय में अनेक स्वप्नदर्शी सिद्धान्त प्रस्तुत कर सकते हैं, किन्तु एक बुद्धिमान भगवद्भक्त भगवद्गीता का अध्ययन करके जान सकता है कि इस सृष्टि के पीछे परमेश्वर का हाथ है, ठीक उसी तरह जिस तरह विद्युत शक्तिघर के पीछे रेजिडेंट इंजीनियर का हाथ रहता है। एक शोधार्थी प्रत्येक वस्तु के कारण तथा कार्य को ढूँढ़ता है, किन्तु जब ब्रह्मा, शिव, इन्द्र तथा अन्य देवताओं जैसे बड़े-बड़े शोधार्थी कभी-कभी भगवान् की आश्चर्यजनक सृजनात्मक शक्ति देखकर भ्रमित हो जाते हैं, तो उन क्षुद्र संसारी शोधार्थियों का क्या कहा जाय जो क्षुद्र वस्तुओं में लगे रहते हैं? जिस तरह ब्रह्माण्ड में विभिन्न लोकों के रहन-सहन में अन्तर है और जिस तरह एक लोक दूसरे से श्रेष्ठ है, उसी तरह उन लोकों के निवासियों के मस्तिष्क भी विभिन्न कोटियों के हैं। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है ब्रह्माजी के लोक के निवासियों की दीर्घ आयु, जो इस धरा लोक के निवासियों के लिए अचिन्त्य है, की तुलना ब्रह्माजी के मस्तिष्क की कोटि के मूल्य से की जा सकती है, जो इस लोक के किसी भी महान् विज्ञानी के लिए अचिन्त्य है। इतनी बड़ी मस्तिष्क शक्ति होने पर भी ब्रह्माजी ने अपनी महान् संहिता (ब्रह्म-संहिता ५.१) में इस प्रकार वर्णन किया है—

ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्द विग्रह:।

अनादिरादिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणम् ॥

“ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जिनमें भगवान् के गुण पाये जाते हैं, लेकिन उनमें कृष्ण सर्वोच्च हैं, क्योंकि कोई उनसे बढक़र नहीं है। वे परम पुरुष हैं और उनका शरीर सच्चिदानन्द स्वरूप है। वे आदि भगवान् गोविन्द है और समस्त कारणों के कारण हैं।”

ब्रह्माजी भगवान् कृष्ण को समस्त कारणों का कारण स्वीकार करते हैं। लेकिन इस क्षुद्र धरालोक के अतिलघु मस्तिष्क वाले व्यक्ति भगवान् को अपने जैसा समझते हैं। इस प्रकार जब भगवद्गीता में भगवान् कहते हैं कि मैं सर्वेसर्वा हूँ तो ज्ञानी तथा संसारी विवादक उनका उपहास करते हैं जिससे भगवान् को अत्यन्त खेदपूर्वक कहना पड़ता है—

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजान्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥

“जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं। वे मेरी दिव्य प्रकृति को और समस्त चराचर पर मेरे परम प्रभुत्व को नहीं जानते।” (भगवद्गीता ९.११)। ब्रह्मा तथा शिव (अन्य देवताओं की बात ही क्या) भूत हैं अर्थात् शक्तिमान उत्पन्न देवता हैं, जो विश्व के कार्यों को उसी तरह चलाते हैं, जिस तरह राजा द्वारा नियुक्त मन्त्री चलाते हैं। ये मन्त्री ईश्वर या नियन्त्रक हो सकते हैं, लेकिन परमेश्वर तो महेश्वर हैं अर्थात् इन नियंत्रकों के भी स्रष्टा हैं। अल्पज्ञ इसे नहीं जानते, अतएव वे भगवान् का खुला उपहास करते हैं, क्योंकि वे मनुष्यों पर यदाकदा अहैतुकी कृपा करके हमारे समक्ष मनुष्य रूप में प्रकट होते हैं। भगवान् मनुष्य की तरह नहीं हैं। वे सचिदानन्द विग्रह या पूर्ण परमेश्वर भगवान् हैं और उनके शरीर तथा उनकी आत्मा में कोई भेद नहीं है। वे शक्ति तथा शक्तिमान दोनों हैं।

महाराज परीक्षित ने अपने गुरु शुकदेव गोस्वामी से भगवान् कृष्ण की वृन्दावन लीलाओं का वर्णन करने के लिए नहीं कहा। वे सर्वप्रथम भगवान् की सृष्टि के विषय में सुनना चाह रहे थे। न ही शुकदेव गोस्वामी ने यह कहा कि राजा को भगवान् की दिव्य लीलाएँ सुननी चाहिए। चूँकि समय कम था, अतएव गोस्वामी चाहते तो सब बातों को छोडक़र सीधे दशम स्कंध में पहुँच जाते, जैसाकि पेशेवर वाचक करते हैं। लेकिन न तो राजा ने, न ही श्रीमद्भागवत के महान् वक्ता ने भागवत के प्रबन्धकों की भाँति उछल-कूद की। दोनों ही विधिपूर्वक आगे बढ़ते गये, जिससे भविष्य के श्रोता तथा वाचक दोनों ही श्रीमद्भागवत सुनाने की विधि से शिक्षा ग्रहण कर सकें। जो लोग भगवान् की बहिरंगा शक्ति के वश में हैं, अथवा दूसरे शब्दों में, जो लोग इस भौतिक जगत में हैं, उन्हें सर्वप्रथम यह जानना चाहिए कि भगवान् की बहिरंगा शक्ति किस तरह से परम पुरुष के निर्देशानुसार कार्य करती है। बाद में उनकी अन्तरंगा शक्ति के कार्यकलापों में वह प्रवेश कर सकता है। संसारी लोग अधिकांशतया कृष्ण की बहिरंगा शक्ति, दुर्गादेवी, के उपासक होते हैं, लेकिन वे यह नहीं जानते कि दुर्गादेवी भगवान् की शक्ति की छायामात्र हैं। उनकी चमत्कारी शक्ति के पीछे भगवान् का निर्देशन कार्य करता रहता है, जैसाकि भगवद्गीता (९.१०) में पुष्टि की गई है। ब्रह्म-संहिता इस बात की पुष्टि करती है कि दुर्गाशक्ति गोविन्द के निर्देशानुसार कार्य करती है और उनकी अनुमति के बिना शक्तिशालिनी दुर्गाशक्ति एक पत्ती भी नहीं हिला सकतीं। अतएव नवदीक्षित भक्त को चाहिए कि भगवान् की अन्तरंगा शक्ति द्वारा प्रस्तुत की जानेवाली दिव्य लीलाओं में छलाँग न लगाकर, उनकी सृजनात्मक शक्ति की विधि के विषय में जिज्ञासा करते हुए जाने कि परमेश्वर कितने महान् हैं। चैतन्य-चरितामृत में भी सृजनात्मक शक्ति के वर्णन की और उसमें भगवान् के हाथ के होने की व्याख्या की गई है और चैतन्य-चरितामृत के रचयिता नवदीक्षित भक्तों को आगाह करते हैं कि वे कृष्ण की महानता विषयक इस ज्ञान की उपेक्षा करके गड्ढे में न गिरें। कृष्ण की महानता को जान लेने के बाद ही कोई उन पर अविचल विश्वास कर सकता है अन्यथा लोगों के महान् नेता भी सामान्य लोगों की तरह भगवान् कृष्ण को अनेक देवताओं में से एक या कोई ऐतिहासिक व्यक्ति या कोरी कपोलकल्पना मानने की भूल करेंगे। भगवान् की वृन्दावन या द्वारका की दिव्य लीलाएँ उन्हीं व्यक्तियों द्वारा आस्वाद्य हैं, जिन्होंने पहले से अपने को उच्च आध्यात्मिक बारीकियों से अवगत करा लिया है। सामान्य व्यक्ति ऐसे स्तर को सेवा तथा जिज्ञासा की क्रमिक विधि से प्राप्त करता है, जैसाकि हम महाराज परीक्षित के आचरण से देखेंगे।

 
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