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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 4: सृष्टि का प्रक्रम  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  2.4.7 
यथा गोपायति विभुर्यथा संयच्छते पुन: ।
यां यां शक्तिमुपाश्रित्य पुरुशक्ति: पर: पुमान् ।
आत्मानं क्रीडयन् क्रीडन् करोति विकरोति च ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; गोपायति—पालन करता है; विभु:—महान्; यथा—जिस तरह; संयच्छते—समेट लेता है; पुन:—फिर; याम् याम्—जैसे-जैसे; शक्तिम्—शक्तियाँ; उपाश्रित्य—लगाकर; पुरु-शक्ति:—सर्वशक्तिमान; पर:—परम; पुमान्—भगवान्; आत्मानम्—पूर्ण अंश को; क्रीडयन्—उन्हें लगा करके; क्रीडन्—जिस तरह स्वयं भी लगे रहकर; करोति—करता है; विकरोति—करवाता है; —तथा ।.
 
अनुवाद
 
 कृपया बतायें कि सर्व-शक्तिमान परमेश्वर किस तरह अपनी विभिन्न शक्तियों तथा विभिन्न अंशों को इस व्यवहार जगत के पालन करने में लगाते हैं और एक खिलाड़ी के खेल की तरह फिरसे इसे समेट लेते हैं?
 
तात्पर्य
 कठोपनिषद् (२.२.१३) में भगवान् को अन्य सभी नित्य जीवों में प्रधान नित्य जीव के रूप में (नित्यो नित्यानां चेतश्चेतनानाम्) तथा एकमेव परमेश्वर के रूप में वर्णित किया गया है, जो अन्य असंख्य जीवों का पालन करता है (एको बहूनां यो विदधाति कामान्)। इस तरह समस्त जीव, चाहे बद्ध अवस्था में हों या मुक्त अवस्था में, सर्व-शक्तिमान परमेश्वर द्वारा पालित हैं। परि-पालन का यह कार्य भगवान् स्वयं के विभिन्न विस्तारों तथा तीन प्रमुख शक्तियों द्वारा—जिनके नाम अन्तरंगा, बहिरंगा तथा तटस्था शक्तियाँ हैं—सम्पन्न करते हैं। सारे जीव उनकी तटस्था शक्तियाँ हैं और उनमें से कुछ को विश्वास पात्र होने के कारण सृष्टि करने का भी कार्यभार सौंपा जाता है, यथा ब्रह्मा, मरीचि आदि को और उन्हें सृष्टि-कार्य करने की प्रेरणा भगवान् देते हैं (तेने ब्रह्म हृदा)। बहिरंगाशक्ति (माया) को भी जीवों से अथवा बद्ध आत्माओं से व्याप्त किया जाता है। अबद्ध तटस्था शक्ति आध्यात्मिक जगत (वैकुण्ठ) में कार्य करती है और भगवान् अपने विविध अंशों द्वारा दिव्य आकाश में प्रदर्शित विभिन्न दिव्य सम्बन्धों में इसे बनाए रखते हैं। इस तरह एक ही भगवान् अपने को अनेक रूपों (बहु स्याम्) में प्रकट करते हैं। इस तरह उनमें सारी विविधताएँ हैं और समस्त विविधताओं में वे रहते हैं, यद्यपि इतने पर भी वे इन सबसे पृथक् रहते हैं। यही है भगवान् की अचिन्त्य योगशक्ति। इस तरह प्रत्येक वस्तु एक ही साथ उनकी अचिन्त्य शक्तियों के कारण उनसे एक तथा पृथक् है (अचिन्त्य-भेदाभेद-तत्त्व)।
 
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