श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 4: सृष्टि का प्रक्रम  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  2.4.8 
नूनं भगवतो ब्रह्मन् हरेरद्भुतकर्मण: ।
दुर्विभाव्यमिवाभाति कविभिश्चापि चेष्टितम् ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
नूनम्—फिर भी अपर्याप्त; भगवत:—भगवान् का; ब्रह्मन्—हे विद्वान ब्राह्मण; हरे:—भगवान् का; अद्भुत—आश्चर्यजनक; कर्मण:—कर्म करनेवाला; दुर्विभाव्यम्—अचिन्त्य; इव—सृदश; आभाति—प्रतीत होता है; कविभि:—अत्यधिक विद्वानों द्वारा भी; च—भी; अपि—के होते हुए; चेष्टितम्—प्रयास करने पर भी ।.
 
अनुवाद
 
 हे विद्वान ब्राह्मण, भगवान् के दिव्य कार्यकलाप अद्भुत हैं और वे अचिन्त्य प्रतीत होते हैं, क्योंकि अनेक विद्वान पंडितों के अनेक प्रयास भी उन्हें समझने में अपर्याप्त सिद्ध होते रहे हैं।
 
तात्पर्य
 अकेले इस ब्रह्माण्ड के सृजन में ही परमेश्वर के कार्य अचिन्त्य तथा अद्भुत प्रतीत होते हैं। फिर ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और वे सब मिलकर सृजित भौतिक जगत कहलाते हैं और उनकी सृष्टि का यह अंश सम्पूर्ण सृष्टि का एक भिन्नांश मात्र है। यह भौतिक जगत के केवल अंश मात्र है (एकांशेन स्थितो जगत्)। यदि यह कल्पना करें कि यह भौतिक जगत उनकी शक्ति के एक अंश का प्रदर्शन है, तो फिर शेष तीन-चौथाई वैकुण्ठ जगत है, जिसका वर्णन भगवद्गीता में मद्धाम या सनातन धाम के रूप में हुआ है। हम पिछले श्लोक में देख चुके हैं कि भगवान् पहले सृष्टि करते हैं और फिर उसे समेट लेते हैं। यह कार्य केवल भौतिक जगत पर लागू होता है, क्योंकि उनकी सृष्टि का बहुत बड़ा भाग वैकुण्ठ लोक न तो सृजित होता है और न उसका विनाश होता है, अन्यथा उसे सनातन धाम न कहा जाता। भगवान् अपने धाम में रहते हैं और उनका दिव्य नाम, गुण, लीलाएँ, पार्षद तथा व्यक्तित्व—ये सभी उनकी विभिन्न शक्तियों तथा अंशों के प्रदर्शन हैं। भगवान् अनादि अर्थात् जिसका स्रष्टा न हो तथा आदि या सभी वस्तुओं का उद्गम कहलाते हैं। हम अपनी अधूरी विधि से सोचते हैं कि भगवान् भी सृजित होते हैं, लेकिन वेदान्त हमें बताता है कि वे सृजित नहीं होते, प्रत्युत अन्य सारी वस्तुएँ उनके द्वारा सजित हैं (नारायण: परोऽव्यक्तात्)। अतएव सामान्य व्यक्ति के लिए ये सभी अद्भुत विषय विचारणीय हैं। ये विषय बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी अचिन्त्य हैं। अतएव ये विद्वान एक दूसरे से विपरीत सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। यहाँ तक कि इस ब्रह्माण्ड-विशेष का भी, जो कि सृजित जगत का एक नगण्य अंश है, उन्हें पूरा-पूरा ज्ञान नहीं है कि यह सीमित आकाश कितनी दूरी तक फैला है या कि कितने नक्षत्र तथा लोक हैं या कि इन अनन्त लोकों में कैसी परिस्थितियाँ हैं? आधुनिक वैज्ञानिकों को इन सबके विषय में अपर्याप्त ज्ञान है। उनमें से कुछ यह विचार प्रकट करते हैं कि सारे आकाश में १० करोड़ लोक हैं। २१ फरवरी १९६० को मास्को से एक समाचार विज्ञापित हुआ, जो इस प्रकार है—

रूस के प्रसिद्ध ज्योतिर्विज्ञान के प्रोफेसर बोरिस वोरोन्तसोव-वेलियामिनोव ने कहा है कि ब्रह्माण्ड में ऐसे असंख्य लोक होने चाहिए, जहाँ तर्कशील प्राणियों का निवास है।

ऐसा सम्भव है कि ऐसे लोकों में पृथ्वी-जैसा ही जीवन फल-फूल रहा हो।

“रसायन-विज्ञान के डाक्टर निकोलाई चिरोव ने अन्य लोकों के वायुमण्डल की समस्या पर विचार करते हुए इंगित किया है कि उदाहरण के तौर पर कहा जा सकता है कि मंगल-लोक का जीव शरीर के कम ताप से सामान्य जीवन के लिये अपने को अच्छी तरह अनुकूल बना सका।

“उसने कहा कि उसे लगता है कि मंगल-लोक के वायुमंडल का संघटन उस लोक के अभ्यस्त प्राणियों के जीवन के लिए सर्वथा उपयुक्त है और उन्होंने अपने को तदानुसार ढाल लिया है” विभिन्न लोकों में प्राणी की अनुकूलन-क्षमता का वर्णन ब्रह्म-संहिता में विभूति भिन्नम् के रूप में वर्णित है अर्थात् ब्रह्माण्ड के असंख्य लोकों में से प्रत्येक में एक विशेष प्रकार का वायुमण्डल है और वहाँ के प्राणी विज्ञान तथा मनोविज्ञान के क्षेत्र में काफी बढ़े-चढ़े हैं, क्योंकि वहाँ का वायुमण्डल बेहतर है। विभूति का अर्थ है ‘विशिष्ट शक्तियाँ’ और भिन्नम् का अर्थ है ‘विविध’। जो विज्ञानी बाह्य अन्तरिक्ष की खोज करने का प्रयास करके यान्त्रिक व्यवस्था द्वारा अन्य लोकों तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहे हैं, उन्हें यह भलीभाँति जान लेना चाहिए कि जिन प्राणियों के शरीर को पृथ्वी के वायुमण्डल के अनुकूल है, वे अन्य लोकों के वायुमण्डल में नहीं रह सकते (हमारी ‘अन्य लोकों की सुगम यात्रा’ पुस्तक देखें)। मनुष्य को इस शरीर को त्यागने के बाद एक भिन्न लोक में जाने के लिए अपने को तैयार रखना होगा, जैसाकि भगवद्गीता (९.२५) में कहा गया है—

यान्ति देवव्रता देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रता:।

भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥

“जो लोग देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगें; जो भूत-प्रेतों को पूजते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेंगे और जो मेरी पूजा करते हैं, वे मेरे साथ रहेंगे।”

भगवान् की सृजनात्मक शक्ति के विषय में महाराज परीक्षित का वक्तव्य यह बताता है कि वे सृष्टि-प्रक्रम के विषय में सब कुछ जानते थे। तो फिर उन्होंने शुकदेव गोस्वामी से ऐसी जानकारी क्यों चाही? पाण्डवों के वंशज महाराज परीक्षित महान् सम्राट थे तथा भगवान् श्रीकृष्ण के महान् भक्त थे। अतएव वे जगत की सृष्टि के विषय में बहुत कुछ जानथे में सक्षम थे, लेकिन उनका ज्ञान इतना पर्याप्त न था। इसलिए उन्होंने कहा कि बड़े-बड़े विद्वान काफी प्रयत्न करने के बाद भी इसे जानने में असफल रहते हैं। भगवान् अनन्त हैं और उनके कार्यकलाप भी अथाह हैं। सीमित ज्ञान तथा अपूर्ण इन्द्रियों के कारण कोई भी जीव, यहाँ तक कि इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च पूर्ण जीव ब्रह्माजी भी, अनन्त के विषय में जान लेने की कल्पना तक नहीं कर सकते। हम अनन्त के विषय में थोड़ा बहुत तभी समझ सकते हैं, जब यह अनन्त द्वारा बताया जाये जैसाकि स्वयं भगवान् ने भगवद्गीता में बतलाया है। शुकदेव गोस्वामी-जैसे प्रबुद्ध व्यक्तियों से भी इस बारे में कुछ हद तक जाना जा सकता है, क्योंकि उन्होंने नारद के शिष्य व्यासदेव से इसे सीखा था। इस तरह शिष्य-परम्परा द्वारा ही पूर्ण ज्ञान प्रकट हो सकता है, किसी भी व्यावहारिक ज्ञान द्वारा नहीं, चाहे वह प्राचीन हो या आधुनिक।

 
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