श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  2.5.1 
नारद उवाच
देवदेव नमस्तेऽस्तु भूतभावन पूर्वज ।
तद् विजानीहि यज्ज्ञानमात्मतत्त्वनिदर्शनम् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
नारद: उवाच—श्री नारद ने कहा; देव—समस्त देवताओं के; देव—देवता; नम:—नमस्कार; ते—तुमको; अस्तु—है; भूत भावन—समस्त प्राणियों के जनक; पूर्व-ज—सर्वप्रथम जन्मा; तत् विजानीहि—उस ज्ञान को बताएँ; यत् ज्ञानम्—जो ज्ञान; आत्म-तत्त्व—दिव्य; निदर्शनम्—विशेष रूप से निर्देश करता है ।.
 
अनुवाद
 
 श्री नारद मुनि ने ब्रह्माजी से पूछा : हे देवताओं में प्रमुख देवता, हे अग्रजन्मा जीव, मैं आपको सादर नमस्कार करता हूँ। कृपा करके मुझे वह दिव्य ज्ञान बतायें, जो मनुष्य को आत्मा तथा परमात्मा के सत्य तक ले जाने वाला है।
 
तात्पर्य
 परम्परा प्रणाली की पूर्णता की और भी पुष्टि हो रही है। पिछले अध्याय में यह स्थापना हुई थी कि आदि-जीव ब्रह्माजी ने सीधे परमेश्वर से ज्ञान प्राप्त किया और उन्होंने वह ज्ञान अगले शिष्य नारद को प्रदान किया। नारद ने ज्ञान प्रदान किये जाने की प्रार्थना की, तो ब्रह्माजी ने ज्ञान प्रदान किया। अतएव सही व्यक्ति से दिव्य ज्ञान के लिए याचना करना और सही ढंग से उसे प्राप्त करना परम्परा का विधान है। इस विधि की संस्तुति भगवद्गीता (४.२) में की गई है। जिज्ञासु शिष्य को चाहिए कि वह समर्पण, विनीत जिज्ञासा तथा सेवा द्वारा दिव्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए सुयोग्य गुरु के पास जाय। इस तरह विनीत जिज्ञासा तथा सेवा द्वारा प्राप्त ज्ञान धन के बदले प्राप्त होनेवाले ज्ञान से अधिक प्रभावात्मक होता है। ब्रह्मा तथा नारद की परम्परा का गुरु कभी डालर तथा सेंट (रुपये-पैसे) नहीं चाहता। प्रामाणिक शिष्य को अपनी प्रतिष्ठावान् सेवा से उसे प्रसन्न करके आत्मा तथा परमात्मा के सम्बन्ध तथा स्वभाव का ज्ञान प्राप्त करना होता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥