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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  2.5.10 
नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भो: ।
अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; अनृतम्—झूठ; तव—तुम्हारा; तत्—वह; —भी; अपि—जैसा तुमने कहा है; यथा—विषय में; माम्—मेरे; प्रब्रवीषि—जिस तरह तुम कहते हो; भो:—हे पुत्र; अविज्ञाय—बिना जाने; परम्—परम; मत्त:—मुझसे परे; एतावत्—जो कुछ कहा है; त्वम्—तुमने; यत:—के कारण से; हि—निश्चय ही; मे—मेरे विषय में ।.
 
अनुवाद
 
 तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, वह असत्य नहीं है, क्योंकि जब तक कोई उन भगवान् के विषय में अवगत नहीं हो लेता, जो मुझसे परे परम सत्य रूप हैं, तब तक वह मेरे सशक्त कार्यकलापों से निश्चित रूप से मोहित होता रहेगा।
 
तात्पर्य
 कूपमण्डूक तर्क यह बताता है कि कुएँ की चहारदीवारी तथा वातावरण के भीतर रहनेवाला मेढक़ (मण्डूक) विशाल सागर की लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान नहीं लगा सकता। ऐसे मेढक़ को यदि विशाल सागर की लम्बाई-चौड़ाई बताई जाय तो पहले तो वह विश्वास नहीं करेगा कि ऐसा समुद्र हो सकता है और यदि कोई उसे आश्वस्त कर भी दे कि समुद्र सचमुच ऐसा ही होता है, तो वह मेढक़ अपने पेट को फुला कर कल्पना से उसे मापने का प्रयास करता है, जिससे उसका छोटा सा पेट फट जाता है और वह बेचारा वास्तविक समुद्र का अनुभव किये बिना ही मर जाता है। इसी प्रकार भौतिक विज्ञानी भी भगवान् की अचिन्त्य शक्ति को अपने मेढक़ सरीखे मस्तिष्क से तथा अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के द्वारा, मापकर चुनौती देना चाहते हैं, किन्तु अन्त में वे विफल हो कर मेढक़ की मौत मरते हैं।

कभी-कभी भौतिक दृष्टि से शक्तिशाली व्यक्ति को ईश्वर या ईश्वर का अवतार मान लिया जाता है, यद्यपि उसे वास्तविक ईश्वर का कोई ज्ञान नहीं रहता। ऐसे भौतिक मूल्यांकन को धीरे-धीरे बढ़ाकर ब्रह्माजी की सर्वोत्तम सीमा तक पहुँचा जा सकता है, जो इस ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च जीव हैं और जिनकी आयु भौतिक वैज्ञानिकों के लिए अकल्पनीय है। जैसाकि हमें भगवद्गीता नामक सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ (८.१७) से विदित होता है, ब्रह्मा का एक दिन और रात मिलकर हमारे लोक के लाखों वर्षों के तुल्य होते हैं। इस दीर्घ आयु पर ‘कूप-मण्डूक’ भले ही विश्वास न करे, किन्तु जिन व्यक्तियों को भगवद्गीता में वर्णित सत्यों की अनुभूति है, वे ऐसे महापुरुष के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, जो पूर्ण ब्रह्माण्ड की विविधता का सृजन करता है। शास्त्रों से यह भी प्रकट होता है कि इस ब्रह्माण्ड के ब्रह्माजी इस ब्रह्माण्ड से परे अनेक अन्यान्य ब्रह्माण्डों के ब्रह्माओं से अपेक्षतया छोटे हैं, लेकिन इनमें से कोई भी भगवान् के समकक्ष नहीं है।

नारद जी मुक्तात्मा हैं। मुक्ति मिलने के बाद ही वे नारद कहलाये अन्यथा इसके पूर्व वे दासी-पुत्र थे। यहाँ प्रश्न पूछा जा सकता है कि नारद को परमेश्वर का ज्ञान क्यों न था और उन्होंने ब्रह्माजी को परमेश्वर क्यों मान लिया था? जबकि वास्तविकता ऐसी न थी? मुक्तात्मा कभी ऐसे भ्रमात्मक विचार से मोहित नहीं होता, तो फिर नारद एक सामान्य व्यक्ति की भाँति इस तरह के प्रश्न क्यों पूछ रहे थे? ऐसा ही मोह अर्जुन को भी हुआ था, यद्यपि वे भगवान् के नित्य सखा थे। अर्जुन या नारद जैसा मोह भगवान् की इच्छा से ही उत्पन्न होता है, जिससे अन्य अमुक्त (बद्ध) व्यक्ति भी भगवान् के असली सत्य तथा ज्ञान की अनुभूति प्राप्त कर सकें। नारद के मन में ब्रह्माजी के सर्वशक्तिमान होने का जो सन्देह उठा, वह कूप-मण्डूकों के लिए अच्छा पाठ है कि वे भगवान् की गलत पहचान करके मोहित न हो जाँय (यहाँ तक की ब्रह्माजी जैसे पुरुष से तुलना करके; उनकी तो कोई बात ही नहीं, जो क्षुद्र मानव अपने को ईश्वर या ईश्वर-अवतार कहते हैं)। परमेश्वर सदैव सर्वश्रेष्ठ रहता है और जैसाकि हमने अपने तात्पर्यों में कई बार प्रतिपादित किया है, कोई भी जीव, यहाँ तक कि ब्रह्मा भी, स्वयं के भगवान् होने का दावा नहीं कर सकता। जब लोग किसी महापुरुष की मृत्यु के बाद, वीर-पूजा के रूप में उसको ईश्वर की भाँति पूजने लगें तो इससे किसी को दिग्भ्रमित नहीं होना चाहिए। अयोध्या के राजा रामचन्द्र जी जैसे अनेक राजा हुए हैं, किन्तु शास्त्रों में कहीं भी ऐसे राजाओं का उल्लेख ईश्वर के रूप में नहीं हुआ है। भगवान् राम होने के लिए आवश्यक योग्यता एक अच्छा राजा होना नहीं, अपितु भगवान् होने के लिए कृष्ण-जैसा महान् पुरुष होना आवश्यक है। यदि हम कुरुक्षेत्र-युद्ध में भाग लेनेवाले पात्रों के बारे में अध्ययन करें, तो हम देखेंगे कि महाराज युधिष्ठिर भगवान् रामचन्द्र से कम पवित्र राजा न थे और पात्रों अध्ययन से महाराज युधिष्ठिर कृष्ण से अच्छे नैतिकतावादी थे। भगवान् कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से झूठ बोलने के लिए कहा, किन्तु महाराज युधिष्ठिर ने इसका प्रतिरोध किया। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि महाराज युधिष्ठिर भगवान् रामचन्द्र या भगवान् कृष्ण के तुल्य थे। महापुरुषों ने महाराज युधिष्ठिर को पुण्यात्मा कहा है, किन्तु उन्होंने राम या कृष्ण को भगवान् के रूप में स्वीकार किया है। अतएव भगवान् सभी परिस्थितियों में भिन्न सत्ता होते हैं और उसके विषय में कोई अवतारवाद लागू नहीं होता। भगवान् सदैव भगवान् रहते हैं और सामान्य प्राणी कभी भी उनकी समता नहीं कर सकता।

 
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