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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  2.5.11 
येन स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम् ।
यथार्कोऽग्निर्यथा सोमो यथर्क्षग्रहतारका: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
येन—जिसके द्वारा; स्व-रोचिषा—अपने तेज से; विश्वम्—सारा जगत; रोचितम्—पहले से रचा हुआ; रोचयामि—प्रकट करता हूँ; अहम्—मैं; यथा—जिस तरह; अर्क:—सूर्य; अग्नि:—अग्नि; यथा—जिस तरह; सोम:—चन्द्रमा; यथा—जिस तरह; ऋक्ष—आकाश; ग्रह—प्रभावशाली लोक; तारका:—तारे ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् द्वारा अपने निजी तेज (ब्रह्मज्योति) से की गई सृष्टि के बाद मैं उसी तरह सृजन करता हूँ जिस तरह कि सूर्य द्वारा अग्नि प्रकट होने के बाद चन्द्रमा, आकाश, प्रभावशाली ग्रह तथा टिमटिमाते तारे भी अपनी चमक प्रकट करते हैं।
 
तात्पर्य
 ब्रह्माजी ने नारद से यह कहा कि उनका अनुमान कि ब्रह्मा सृष्टि में परम प्रमाण नहीं है, ठीक ही था। कभी-कभी अल्पज्ञानी पुरुषों की ऐसी धारणा बनती है कि ब्रह्मा ही सभी कारणों के कारण हैं। लेकिन नारद इस बात को ब्रह्माण्ड के परम प्रमाण ब्रह्माजी के कथनों से स्पष्ट कर लेना चाहते थे। जिस प्रकार राज्य के सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय अन्तिम होता है, उसी तरह ब्रह्माजी का निर्णय ज्ञान प्राप्त करने की वैदिक विधि के अनुसार अन्तिम था। जैसाकि हम पिछले श्लोक में पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं, नारद जी मुक्तात्मा थे। अतएव वे कोई ऐसे अल्पज्ञ व्यक्ति न थे, जो झूठे देवता या देवताओं को मनमाने ढंग से स्वीकार कर लेते। वे अपने को अल्पज्ञ के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे, किन्तु बुद्धिमानी के साथ संदेह को समक्ष रख रहे थे जिसका स्पष्टीकरण परम प्रमाण द्वारा हो जिससे अज्ञानी लोग इसको समझ सकें और सृष्टि तथा स्रष्टा की जटिलताओं के विषय में सही-सही जानकारी प्राप्त कर लें।

इस श्लोक में ब्रह्माजी अल्पज्ञों की गलत धारणा को स्पष्ट कर देते हैं और पुष्टि करते हैं कि वे विश्व की विविधता का सृजन भगवान् श्रीकृष्ण के प्रकाशमान तेज द्वारा उत्पन्न सृष्टि के बाद करते हैं। ब्रह्माजी ने अलग से भी यही बात ब्रह्म संहिता (५.४०) में इस प्रकार कही है— यस्य प्रभा प्रभवतो जगदण्डकोटि- कोटिष्वशेषवसुधादिविभूतिभिन्नम्।

तद्ब्रह्म निष्कलमनन्तमशेषभूतं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

“मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की सेवा करता हूँ, जिनका दिव्य शारीरिक तेज जो ब्रह्मज्योति के नाम से प्रसिद्ध है, जो असीम, अगाध तथा सर्वव्यापी हैं और जो उन असंख्य लोकों आदि की सृष्टि के कारण हैं, जिनमें नाना प्रकार की जलवायु तथा जीवन की दशाएँ हैं।”

यही वक्तव्य भगवद्गीता (१४.२७) में पाया जाता है। भगवान् कृष्ण ही ब्रह्मज्योति के आधार हैं (ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्)। निरुक्ति अर्थात् वैदिक कोश में प्रतिष्ठा का उल्लेख ‘जो स्थापित करता है’ के रूप में हुआ है। इस तरह ब्रह्मज्योति स्वतन्त्र या आत्म-निर्भर नहीं है। भगवान् कृष्ण ही अन्ततोगत्वा ब्रह्मज्योति के स्रष्टा हैं, जिसे इस श्लोक में स्व-रोचिषा या भगवान् के दिव्य शरीर का तेज कहा गया है। यह ब्रह्मज्योति सर्वव्यापी है और इसकी निहित शक्ति से सारी सृष्टि सम्भव होती है। अतएव वैदिक स्तोत्र घोषित करते हैं कि जितनी वस्तुओं का अस्तित्व है, वे ब्रह्मज्योति द्वारा धारित हैं (सर्वं खल्विदं ब्रह्म)। इस प्रकार सारी सृष्टि का बीज ब्रह्मज्योति है और यही असीम तथा अगाध ब्रह्मज्योति भगवान् द्वारा स्थापित की जाती है। अतएव भगवान् (श्रीकृष्ण) ही सारी सृष्टि के परम कारण हैं (अहं सर्वस्य प्रभव:)।

हमें यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि भगवान् लुहार की तरह हथौड़े तथा अन्य औजारों से सृजन करते होंगे। वे तो अपनी शक्तियों से सृजन-कार्य करते हैं। उनकी बहुगुणित शक्तियाँ हैं (परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते)। जिस प्रकार एक छोटे से वट-बीज में विशाल वट-वृक्ष उत्पन्न करने की क्षमता रहती है, उसी प्रकार भगवान् अपनी ब्रह्मज्योति (स्व-रोचिषा) से सभी प्रकार के बीजों को फैलाते हैं और ये बीज ब्रह्मा जैसे व्यक्तियों द्वारा सींचे जाने पर विकसित होते हैं। ब्रह्मा बीजों को उत्पन्न नहीं कर सकते, किन्तु वे बीज को वृक्ष के रूप में दिखला सकते हैं जिस प्रकार माली जल से सींच-सींच कर पौधों को तथा अमराइयों को बड़ा बनाता है। यहाँ पर दिया गया सूर्य का उदाहरण अत्यन्त उपयुक्त है। भौतिक जगत में सूर्य ही समस्त प्रकाश का यथा अग्नि, बिजली, चन्द्रमा की किरणों का कारण है। आकाश के सारे ज्योतिष्क सूर्य की सृष्टियाँ हैं, सूर्य ब्रह्मज्योति की सृष्टि है और ब्रह्मज्योति भगवान् का तेज है। इस प्रकार सृष्टि के अनन्तिम कारण भगवान् हैं।

 
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