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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  2.5.12 
तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि ।
यन्मायया दुर्जयया मां वदन्ति जगद्गुरुम् ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मै—उस; नम:—नमस्कार करता हूँ; भगवते—भगवान् को; वासुदेवाय—भगवान् कृष्ण को; धीमहि—उनका ध्यान करता हूँ; यत्—जिस; मायया—शक्ति के द्वारा; दुर्जयया—दुर्जय; माम्—मुझको; वदन्ति—कहते हैं; जगत्—जगत; गुरुम्— स्वामी ।.
 
अनुवाद
 
 मैं उन भगवान् कृष्ण (वासुदेव) को नमस्कार करता हूँ तथा उनका ध्यान करता हूँ, जिनकी दुर्जय शक्ति उन्हें (अल्पज्ञ मनुष्यों को) इस तरह प्रभावित करती है कि वे मुझे ही परम नियन्ता कहते हैं।
 
तात्पर्य
 जैसाकि अगले श्लोक में अधिक स्पष्ट रूप से बतलाया जायेगा, अल्पज्ञ को भगवान् की शक्ति इस तरह मोहित करती है कि वह ब्रह्माजी को या अन्य किसी व्यक्ति को परमेश्वर मान बैठता है। किन्तु ब्रह्माजी को ऐसा कहलाना पसन्द नहीं है। वे भगवान् वासुदेव या श्रीकृष्ण को उसी तरह सादर नमस्कार करते हैं जिस तरह उन्होंने ब्रह्म-संहिता (५.१) में उनका अभिवादन किया है—

ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानन्दविग्रह:।

अनादिरादिर्गोविन्द: सर्वकारणकारणं ॥

“परमेश्वर तो भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जो अपने दिव्य शरीर से आदि भगवान् हैं और समस्त कारणों के परम कारण हैं। मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ।”

ब्रह्माजी अपनी असली स्थिति से अवगत हैं और वे जानते हैं कि किस तरह अल्पज्ञानी व्यक्ति भगवान् की भ्रामक शक्ति द्वारा मोहित होकर हर एक को ईश्वर मान लेते हैं। ब्रह्माजी जैसे उत्तरदायी पुरुष अपने शिष्यों या आश्रितों से परमेश्वर कहलाना पसन्द नहीं करते, लेकिन मूर्ख व्यक्ति कुत्तों, शूकरों, ऊँटों तथा घोड़ों जैसे पुरुषों से प्रशंसित होने एवं परमेश्वर के रूप में सम्बोधित किये जाने पर अत्यन्त प्रफुल्लित होते हैं। ऐसे लोग ईश्वर कहलाने या मूर्ख प्रशंसकों द्वारा ईश्वर कहकर पुकारे जाने पर क्यों पुलकित होते हैं इसकी व्याख्या अगले श्लोक में दी गई है।

 
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