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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  2.5.14 
द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
वासुदेवात्परो ब्रह्मन्न च चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वत: ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
द्रव्यम्—अवयव (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश); कर्म—अन्योन्य क्रियाएँ; —तथा; काल:—शाश्वत काल; — भी; स्व-भाव:—स्वभाव; जीव:—जीव; एव—निश्चय ही; —तथा; वासुदेवात्—वासुदेव से; पर:—भिन्न अंश; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; —कभी नहीं; —भी; अन्य:—पृथक्; अर्थ:—महत्त्व; अस्ति—है; तत्त्वत:—वास्तव में ।.
 
अनुवाद
 
 सृष्टि के पाँच मूल अवयव शाश्वत काल द्वारा उनसे उत्पन्न अन्योन्य क्रिया तथा जीव का स्वभाव—ये सब भगवान् वासुदेव के भिन्नांश हैं और सच बात तो यह है कि उनका कोई अन्य महत्व नहीं है।
 
तात्पर्य
 यह व्यवहार-जगत निर्विशेषतया वासुदेव की अभिव्यक्ति है, क्योंकि इसके सृजनकारी अवयव, उनकी अन्योन्य क्रिया तथा फल का भोक्ता जीव—ये सभी भगवान् कृष्ण की बहिरंगा तथा अन्तरंगा शक्तियों द्वारा उत्पन्न हैं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.४-५) में हुई है। सारे अवयव यथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश एवं इन्हीं के साथ भौतिक पहचान की अवधारणा, बुद्धि तथा मन भगवान् की बहिरंगा शक्ति से उत्पन्न हैं। शाश्वत काल द्वारा निर्धारित इन स्थूल तथा सूक्ष्म अवयवों का भोग करनेवाला जीव अन्तरंगा शक्ति की उपज है, जिसे इस जगत में या वैकुण्ठ लोक में रहने की छूट है। भौतिक जगत में जीव ठगिनी अविद्या से छला जाता है, किन्तु वैकुण्ठ लोक में वह किसी भ्रम के बिना सामान्य अवस्था में रहता है। जीव को भगवान् की तटस्था शक्ति कहा जाता है, लेकिन सभी परिस्थितियों में न तो भौतिक अवयव और न आध्यात्मिक भिन्नांश ही भगवान् वासुदेव से स्वतन्त्र हैं, क्योंकि सारी वस्तुएँ, चाहे वे भगवान् की बहिरंगा, अन्तरंगा या तटस्था शक्तियों के प्रतिफल हों, उसी तरह भगवान् के तेज के प्रदर्शन हैं जिस प्रकार प्रकाश, उष्मा तथा धुआँ एक ही अग्नि के प्रदर्शन हैं। इनमें से कोई अग्नि से भिन्न नहीं—सभी मिलकर अग्नि कहलाते हैं। इसी प्रकार सारी व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ तथा वासुदेव के शरीर का तेज उनके निर्विशेष गुण हैं, जबकि भगवान् उपर्युक्त भौतिक अवयवों की अवधारणाओं से सर्वथा पृथक् सच्चिदानन्द विग्रह नामक अपने दिव्य रूप में रहते हैं।
 
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