नारायण—परमेश्वर; परा:—कारण-स्वरूप तथा उसी के निमित्त; वेदा:—ज्ञान; देवा:—देवता; नारायण—परमेश्वर के; अङ्ग जा:—सहायक; नारायण—भगवान्; परा:—के लिए; लोका:—सारे लोक; नारायण—परमेश्वर; परा:—उन्हें प्रसन्न करने के लिए; मखा:—सारे यज्ञ ।.
अनुवाद
सारे वैदिक ग्रंथ परमेश्वर से ही बने हैं और उन्हीं के निमित्त हैं। देवता भी भगवान् के शरीर के अंगों के रूप में उन्हीं की सेवा के लिए हैं। विभिन्न लोक भी भगवान् के निमित्त हैं और विभिन्न यज्ञ उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए सम्पन्न किये जाते हैं।
तात्पर्य
वेदान्त सूत्र (शास्त्रयोनित्वात्) के अनुसार परमेश्वर समस्त शास्त्रों के रचयिता हैं और सारे शास्त्र इन्हीं परमेश्वर को जानने के लिए हैं। वेद का अर्थ है भगवान्-विषयक ज्ञान। वेदों की रचना बद्धजीव की विस्मृत चेतना को जागृत करने के लिए हुई और ऐसा साहित्य जो ईश-चेतना को जागृत करनेवाला नहीं होता, वह नारायणपर भक्तों द्वारा त्याज्य है। जिन ग्रंथों का लक्ष्य नारायण नहीं होता, ऐसे भ्रामक ग्रंथ ज्ञान नहीं हैं अपितु उन कौवों के क्रीड़ास्थल हैं, जो विश्व भर का जूठन खाने में रुचि रखते हैं। ज्ञान (विज्ञान या कला) के किसी भी ग्रंथ से नारायण का ज्ञान होना चाहिए, अन्यथा वह त्यागने योग्य है। ज्ञान की प्रगति का यही साधन है। परम पूज्य विग्रह नारायण हैं। पूजन के लिए देवताओं को नारायण से गौण स्थान प्रदान किया जाता है, क्योंकि देवता तो विश्व के कार्यों की व्यवस्था में सहायक होते हैं। जिस तरह किसी राज्य के अधिकारियों का आदर इसीलिए होता है क्योंकि राजा से उनका सम्बन्ध होता है, उसी तरह देवताओं की पूजा भगवान् के साथ उनके सम्बन्ध के कारण होती है। भगवान् से सम्बन्ध न होने पर देवाताओं की पूजा अनुचित है (अविधिपूर्वकम्), ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि जड़ को न सींच कर वृक्ष की पत्तियों तथा टहनियों को सींचना। अतएव सारे देवता भी नारायण पर आश्रित रहते हैं। विभिन्न लोक इसलिए आकर्षक लगते हैं, क्योंकि उनमें तरह-तरह का जीवन है तथा आनन्द है, जो सच्चिदानन्द विग्रह की आंशिक अभिव्यक्ति है। प्रत्येक व्यक्ति शाश्वत आनन्द तथा ज्ञानमय जीवन चाहता है। भौतिक जगत में ऐसा आनन्द तथा ज्ञानमय शाश्वत जीवन उच्चतर लोकों में ही सम्भव है, लेकिन वहाँ तक पहुँचने पर वह भगवद्धाम जाने के लिये उन्मुख हो सकता है। जीवन की अवधि (आयु) भी आनन्द तथा ज्ञान की मात्रा के अनुपात में, एक लोक से दूसरे लोक में, अधिक हो सकती है। विभिन्न लोकों में जीव की आयु हजारों-लाखों साल तक बढ़ सकती है, किन्तु कहीं भी शाश्वत जीवन नहीं है। किन्तु जो व्यक्ति सर्वोच्च लोक अर्थात् ब्रह्मलोक तक पहुँच जाता है, वह वैकुण्ठ लोक जाने की कामना कर सकता है, जहाँ जीवन शाश्वत है। अतएव एक लोक से दूसरे लोक की यात्रा का अन्त भगवान् के परम लोक (मद्धाम) पहुँचने पर हो जाता है, जहाँ जीवन शाश्वत है और ज्ञान तथा आनन्द से पूर्ण है। जितने सारे यज्ञ किये जाते हैं, वे भगवान् नारायण को प्रसन्न करके उन तक पहुँचने के लिए होते हैं और इस कलियुग के लिए जिस सर्वश्रेष्ठ यज्ञ की संस्तुति की जाती है, वह संकीर्तन यज्ञ है, जो नारायण-पर भक्त की भक्तिमय सेवा का मूलाधार है।
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