तस्यापि द्रष्टुरीशस्य कूटस्थस्याखिलात्मन: ।
सृज्यं सृजामि सृष्टोऽहमीक्षयैवाभिचोदित: ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
तस्य—उसका; अपि—निश्चय ही; द्रष्टु:—देखनेवाले का; ईशस्य—नियन्ता का; कूट-स्थस्य—जो सबों की बुद्धि के ऊपर है, उसका; अखिल-आत्मन:—परमात्मा का; सृज्यम्—पहले से सृष्ट; सृजामि—मैं खोजता हूँ; सृष्ट:—सृजित; अहम्—मैं; ईक्षया—झलक मात्र से; एव—सही-सही; अभिचोदित:—उससे प्रेरित होकर ।.
अनुवाद
उनके ही द्वारा प्रेरित होकर मैं भगवान् नारायण द्वारा सर्वव्यापी परमात्मा के रूप में उनकी ही दृष्टि के सामने पहले जो सृजित हो चुका है, उसी की फिर खोज करता हूँ और मैं भी केवल उन्हीं के द्वारा सृजित हूँ।
तात्पर्य
ब्रह्माण्ड के स्रष्टा ब्रह्माजी भी स्वीकार करते हैं कि वे असली स्रष्टा नहीं, अपितु भगवान् नारायण द्वारा प्रेरणा-प्राप्त हैं। अतएव उन्हीं की अध्यक्षता में वे समस्त जीवों के परमात्मास्वरूप उन्हीं के द्वारा पहले से निर्मित वस्तुओं का सृजन करते हैं। परमात्मा तथा आत्मा, इन दो को ब्रह्माण्ड के बड़े-बड़े महापुरुषों तक ने जीव में निहित माना है। परमात्मा तो भगवान् है, जबकि आत्मा भगवान् का नित्य सेवक है। भगवान् आत्मा (जीव) को प्रेरित करते हैं कि उन्होंने जो कुछ पहले सृष्टि की है, वह उसका सृजन करे और भगवत्कृपा से इस संसार में जो कोई किसी भी वस्तु की खोज करता है, वह उसका खोजी मान लिया जाता है। कहा जाता है कि कोलम्बस ने पश्चिमी गोलार्द्ध की खोज की, लेकिन वास्तविकता यह है कि उस भूभाग का सृजन कोलम्बस ने नहीं किया। यह विशाल भूखण्ड परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता के कारण पहले से वहाँ था और कोलम्बस को भगवान् की विगत सेवा के बल पर अमरीका की खोज करने का श्रेय प्राप्त हुआ। इसी प्रकार कोई भी व्यक्ति भगवान् की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी सृजन नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार ही देखता है। यह क्षमता भी मनुष्य द्वारा भगवान् की सेवा करने की रजामन्दी के अनुसार भगवान् द्वारा प्रदान की जाती है। अतएव मनुष्य को स्वेच्छा से भगवान् की सेवा करने के लिए इच्छुक होना चाहिए। इस तरह भगवान् कर्ता को उसी अनुपात में शक्ति प्रदान करते हैं, जिस अनुपात में वह भगवान् के चरणकमलों में आत्मसमर्पण करता है। ब्रह्माजी भगवान् के महान् भक्त हैं, अतएव भगवान् ने उन्हें शक्ति दी, या यों कहें कि यह प्रेरणा दी कि हमारे समक्ष जैसा विश्व है, वे वैसे ही विश्व की सृष्टि करें। भगवान् ने इसी तरह अर्जुन को कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिए प्रेरित किया था (भगवद्गीता ११.३३)। तस्मात् त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
चाहे कुरुक्षेत्र का युद्ध हो या किसी अन्य स्थान अथवा अन्य समय में लड़ा गया कोई युद्ध हो, वह भगवान् की इच्छा से लड़ा जाता है, क्योंकि भगवान् की मर्जी के बिना कोई इतना बड़ा जन-संहार नहीं कर सकता। दुर्योधन के दल ने कृष्ण की परम भक्त द्रौपदी का अपमान किया और द्रौपदी ने भगवान् से तथा वहाँ पर उपस्थित सारे मूक दर्शकों से इस अनुचित अपमान से बचने के लिए याचना की। तब अर्जुन को भगवान् ने सलाह दी कि वह लडक़र बदला ले अन्यथा दुर्योधन का दल भगवान् की इच्छा से किसी न किसी प्रकार मारा जायेगा। इस तरह अर्जुन को निमित्तमात्र बनने तथा भीष्म एवं कर्ण जैसे महान् सेनापतियों का बध करने का श्रेय लेने के लिए कहा गया।
कठोपनिषद् जैसे वैदिक ग्रंथ में भगवान् को सर्वभूत अन्तरात्मा के रूप में वर्णित किया गया है अर्थात् वे प्रत्येक शरीर के भीतर निवास करनेवाले तथा उनकी शरण में आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को निर्देश देनेवाले हैं। जो शरणागत नहीं हैं उन्हें प्रकृति के संरक्षण में रखा जाता है (भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया)। इस तरह उन्हें अपने ढंग से कार्य करने दिया जाता है और स्वयं दुष्परिणाम भोगने दिया जाता है। ब्रह्मा तथा अर्जुन जैसे भक्त अपनी ओर से कुछ भी नहीं करते, अपितु पूर्ण शरणागत होने के कारण भगवान् के संकेतों की प्रतीक्षा करते रहते हैं। अतएव वे कुछ ऐसा करने का प्रयास करते हैं, जो सामान्य दृष्टि में अत्यन्त आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। भगवान् का एक नाम उरुक्रम है, जिसका अर्थ है, वह जिसके कार्य अत्यन्त अद्भुत और जीव की कल्पना से परे होते हैं; अतएव भगवान् के भक्तों के कार्य कभी-कभी अत्यन्त अद्भुत प्रतीत होते हैं, क्योंकि उनमें भगवान् का निर्देशन रहता है। ब्रह्माण्ड के सर्वोच्च बुद्धिमान जीव ब्रह्मा से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक सारे जीवों की बुद्धि भगवान् द्वारा सारे कार्यों के साक्षी रूप में देखी जाती है। भगवान् की सूक्ष्म उपस्थिति का अनुभव उस बुद्धिमान व्यक्ति को होता है, जो सोचने, अनुभव करने तथा चाहने के मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अध्ययन कर सकता है।
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