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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  2.5.19 
कार्यकारणकर्तृत्वे द्रव्यज्ञानक्रियाश्रया: ।
बध्नन्ति नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणा: ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
कार्य—प्रभाव, फल; कारण—कारण; कर्तृत्वे—कार्यों में; द्रव्य—पदार्थ; ज्ञान—ज्ञान; क्रिया-आश्रया:—ऐसे लक्षणों से प्रकट; बध्नन्ति—बद्ध करते हैं; नित्यदा—नित्य; मुक्तम्—दिव्य; मायिनम्—भौतिक शक्ति से प्रभावित; पुरुषम्—जीव को; गुणा:—भौतिक गुण ।.
 
अनुवाद
 
 भौतिक प्रकृति के ये तीनों गुण आगे चलकर पदार्थ, ज्ञान तथा क्रियाओं के रूप में प्रकट होकर दिव्य जीव को कार्य-कारण के प्रतिबन्धों के अन्तर्गत डाल देते हैं और ऐसे कार्यों के लिए उसे उत्तरदायी बना देते हैं।
 
तात्पर्य
 चूँकि नित्य शाश्वत जीव अन्तरंगा तथा बहिरंगा शक्तियों के मध्य में स्थित हैं, अतएव वे भगवान् की तटस्था शक्ति कहलाते हैं। वास्तव में जीव भौतिक शक्ति द्वारा बद्ध होने के लिए नहीं हैं, लेकिन भौतिक शक्ति पर प्रभुता जताने के मिथ्या भाव के कारण वे ऐसी शक्ति के वशीभूत हो जाते हैं और इस तरह तीनों गुणों द्वारा बँध जाते हैं। भगवान् की यह बहिरंगा शक्ति उस जीव के शुद्ध ज्ञान को प्रच्छन्न कर लेती है, जो शाश्वत रूप से भगवान् के साथ रहनेवाला है। यह आवरण इतना स्थायी होता है कि बद्धजीव नित्य अज्ञानी प्रतीत होता है। माया या बहिरंगा शक्ति का प्रभाव इतना अद्भुत होता है मानो यह भूतों से उत्पन्न हुआ हो। भौतिक शक्ति की आवरणात्मक मजबूती के कारण भौतिक-विज्ञानी भौतिक कारणों से परे नहीं देख पाता लेकिन वस्तुत: भौतिक अभिव्यक्तियों के पीछे अधिभूत, अध्यात्म तथा अधिदैव क्रियाएँ होती हैं, जिन्हें तमोगुणी बद्धजीव नहीं देख पाता। अधिभूत अभिव्यक्ति के अन्तर्गत बुढ़ापा तथा रोग समेत जन्म-मृत्यु की पुनरावृत्ति होती है, अध्यात्म अभिव्यक्ति में आत्मा बद्ध होती है और अधिदैव अभिव्यक्ति नियामक पद्धति है। ये कार्य-कारण तथा बद्ध कर्ताओं में उत्तरदायित्व के भावों की भौतिक अभिव्यक्तियाँ हैं। आखिर कार ये सब बद्ध अवस्था की अभिव्यक्तियाँ हैं और ऐसी बद्ध अवस्था से मनुष्य का स्वतन्त्र होना ही सर्वोच्च सिद्धि है।
 
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