हे ब्राह्मण नारद, परम द्रष्टा परब्रह्म प्रकृति के उपर्युक्त तीनों गुणों के कारण जीवों की इन्द्रियों की अनुभूति से परे हैं। लेकिन वे मुझ समेत सबों के नियन्ता हैं।
तात्पर्य
भगवद्गीता (७.२४-२५) में भगवान् ने यह स्पष्टत: घोषित किया है कि निर्विशेषवादी जो ब्रह्मज्योति रूप भगवान् की दिव्य किरणों को अधिक महत्त्व देता है तथा यह निष्कर्ष निकालता है कि परम सत्य वास्तव में निर्विशेष है तथा आवश्यकता पडऩे पर अपना रूप प्रकट करता है, ऐसा निर्विशेषवादी सगुणवादी से कम बुद्धिमान होता है, चाहे वह वेदान्त के अध्ययन में कितना ही क्यों न लगा रहे। तथ्य तो यह है कि ऐसा निर्विशेषवादी उपर्युक्त गुणों से आच्छादित रहता है, अतएव वह भगवान् तक पहुँचने में असमर्थ रहता है। भगवान् प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुगम्य नहीं हैं, क्योंकि वे अपनी योगमाया शक्ति से आवृत रहते हैं। लेकिन इससे यह त्रुटिपूर्ण निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि भगवान् मूलत: अव्यक्त थे और अब मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। भगवान् के रूपविहीन होने की यह भ्रान्त धारणा भगवान् के योगमाया आवरण के कारण है और जब बद्धजीव भगवान् की शरण में जाता है, तो परम इच्छा से ही यह दूर हो सकता है। भगवद्भक्त जो उपर्युक्त तीनों गुणों से परे रहते हैं, भक्तिभाव में अपनी प्रेम दृष्टि से उनके सर्व आनन्दमय दिव्य रूप का दर्शन कर सकते हैं।
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