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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 5: समस्त कारणों के कारण  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  2.5.21 
कालं कर्म स्वभावं च मायेशो मायया स्वया ।
आत्मन् यद‍ृच्छया प्राप्तं विबुभूषुरुपाददे ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
कालम्—नित्य काल; कर्म—जीव का भाग्य; स्वभावम्—प्रकृति; —भी; माया—शक्ति; ईश:—नियन्ता; मायया—शक्ति से; स्वया—अपनी; आत्मन्—(आत्मनि) अपने को; यदृच्छया—स्वतन्त्रतापूर्वक; प्राप्तम्—तदाकार होकर; विबुभूषु:—भिन्न दिखनेवाले; उपाददे—पुन: सृजित होना स्वीकार किया ।.
 
अनुवाद
 
 समस्त शक्तियों के नियन्ता भगवान् अपनी ही शक्ति से नित्य काल, समस्त जीवों के भाग्य तथा उनके विशिष्ट स्वभाव की सृष्टि करते हैं और फिर स्वतन्त्र रूप से उन्हें अपने में विलीन कर लेते हैं।
 
तात्पर्य
 इस भौतिक संसार की सृष्टि, जिसमें परमेश्वर बद्धजीवों को अपने अधीन रखकर कर्म करने देते हैं, हर बार यह प्रलय के बाद बार बार होता रहता है। भौतिक सृष्टि असीम आकाश में बादल के समान है। वास्तविक आकाश तो आध्यात्मिक आकाश है, जो ब्रह्मज्योति की किरणों से निरन्तर पूर्ण रहता है और इस असीम आकाश का एक अंश भौतिक सृष्टिरूपी महत्तत्व के बादल से आच्छादित रहता है, जिसमें भगवान् की बहिरंगा शक्ति के नियन्त्रण में रहकर इच्छानुसार कर्म करने के लिए बद्धजीवों को छोड़ दिया जाता है, जो भगवान् की इच्छा के विरुद्ध अपनी प्रभुता जताना चाहते हैं। जिस प्रकार वर्षा ऋतु हर बार आती है और चली जाती है उसी तरह सृष्टि उत्पन्न होती है और भगवान् के नियन्त्रण में पुन: विलीन हो जाती है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता (८.१९) में हुई है। इस तरह भौतिक जगतों की सृष्टि तथा प्रलय भगवान् का नियमित कार्य है, जिसमें बद्धजीवों को इच्छानुसार क्रीड़ा करने और अपना-अपना भाग्य निर्मित करके प्रलय के समय अपनी स्वतन्त्र इच्छाओं के अनुसार पुन: जन्म लेने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस तरह सृष्टि एक ऐतिहासिक तिथि से प्रारम्भ होती है (जैसाकि हम अपने अल्प अनुभव से सोचने के आदी हैं)। सृष्टि तथा प्रलय का प्रक्रम अनादि है अर्थात् इसकी उत्पत्ति पहले पहल कब हुई, इसका पता नहीं हैं, क्योंकि आंशिक सृष्टि की ही अवधि ८,६४०,०००,००० वर्ष है, लेकिन वैदिक साहित्य में वर्णित सृष्टि का नियम यह है कि वह कुछ-कुछ अन्तरालों में सृजित होती है और भगवान् की इच्छा से पुन: विनष्ट हो जाती है। सारी भौतिक सृष्टि या आध्यात्मिक सृष्टि भी भगवान् की शक्ति की वैसी ही अभिव्यक्ति है जैसे कि अग्नि का प्रकाश तथा उष्मा अग्नि की शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। अतएव भगवान् शक्ति के ऐसे विस्तार द्वारा ही निर्विशेष रूप में विद्यमान रहते हैं और सम्पूर्ण सृष्टि उनके निर्विशेष स्वरूप पर आश्रित है। तो भी वे अपने को ऐसी सृष्टि से पूर्णम् के रूप में पृथक् रखते हैं। अतएव किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि वे अपने निर्विशेष असीम विस्तार के कारण साकार रूप में विद्यमान नहीं होते। उनका निर्विशेष विस्तार उनकी शक्ति की अभिव्यक्ति है और वे अपने असंख्य निर्विशेष विस्तारों के होते हुए भी सदा अपने साकार रूप में रहते हैं (भगवद्गीता ९.५-७)। मानवी बुद्धि के लिए यह कल्पना कर पाना अत्यन्त कठिन है कि किस तरह सारी सृष्टि भगवान् की शक्ति के विस्तार पर टिकी है, लेकिन भगवान् ने भगवद्गीता में एक बहुत सुन्दर उदाहरण दे रखा है। उसमें कहा है कि यद्यपि वायु तथा परमाणु आकाश के विशाल विस्तार में टिके हैं, जो प्रत्येक भौतिक वस्तु के लिए विश्राम का आगार है, तो भी यह आकाश पृथक् तथा अप्रभावित रहता है। इसी प्रकार यद्यपि परमेश्वर अपनी शक्ति के विस्तार से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु का पालन करते हैं, तो भी वे पृथक् रहते हैं। इसे तो निराकार ब्रह्म के प्रबल समर्थक शंकराचार्य तक ने स्वीकार किया है। वे कहते हैं नारायण: परोऽव्यक्तात् अर्थात् नारायण अपनी निर्विशेष सृजनात्मक शक्ति से पृथक् विद्यमान हैं। इस तरह, प्रलय के समय यह सारी सृष्टि नारायण के दिव्य शरीर के भीतर लीन हो जाती है और यह सृष्टि पुन: भाग्य तथा स्वभाव की उन्हीं अपरिवर्तित कोटियों समेत उन्हीं के शरीर से उद्भूत होती है। सारे जीव भगवान् के अंश होने के कारण कभी-कभी आत्मा के रूप में वर्णित होते हैं—जो आध्यात्मिक संरचना में एक से है। चूँकि ऐसे जीव भौतिक सृष्टि के प्रति पूरी आसक्ति के साथ आकृष्ट होते रहते हैं, अतएव वे भगवान् से भिन्न होते हैं।
 
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